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मन विजय से मुक्ति

एकदा

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एक बार अग्निवेश ने आचार्य पुनर्वसु आत्रेय से पूछा, ‘जब मनुष्य मर जाता है तो उसकी चेतना कहां चली जाती है और जीवित रहते हुए मन, इन्द्रियों और आत्मा का आपसी संबंध क्या है।’ ऋषि आत्रेय ने कहा, ‘मन अपने आप में अचेतन है, यह केवल साधन है। आत्मा ही इसे चेतना प्रदान करती है और कार्य कराने में सक्षम बनाती है। जीवित अवस्था में जब आत्मा शरीर में स्थित होती है तब प्राण का संचार, मन की गति, इन्द्रियों का अनुभव, इच्छा-द्वेष, सुख-दुःख, स्मृति और बुद्धि जैसे लक्षण प्रकट होते हैं।’ अग्निवेश ने प्रश्न किया, ‘मृत्यु के बाद क्या होता है।’ आत्रेय ने कहा, ‘मृत्यु के बाद शरीर मात्र पंचभूतों का ढेर रह जाता है, जैसे दीपक बुझने पर दीपशाला अंधकारमय हो जाती है।’ अग्निवेश ने पूछा, ‘यदि ईश्वर है तो आत्मा कभी पापयुक्त योनि में क्यों जन्म लेती है।’ आत्रेय बोले, ‘आत्मा को कोई बाहर से प्रेरित नहीं करता, उसके अपने ही कर्म उसे खींचकर अनिष्ट योनियों तक ले जाते हैं। धर्म उसे ऊर्ध्वगति देता है और अधर्म नीच योनियों में गिराता है। यही आत्मा की स्वतंत्रता है। कर्म का चयन करना, पर परिणामस्वरूप फल भोगना अनिवार्य हो जाता है।’ अग्निवेश ने फिर पूछा, ‘क्या मुक्ति का कोई उपाय है।’ आत्रेय जी ने बताया, ‘मन पर विजय पाना ही उपाय है। वशीभूत मन धर्म का पालन कराता है, साधना में स्थिर करता है और आत्मा को जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करता है। जिसने मन को वश में कर लिया वही सच्चा विजेता है।’

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