देवलोक में सहसा लक्ष्मी को आया देख देवगण अचंभित रह गए। देवराज इन्द्र ने उनकी अगवानी करते हुए पूछा, ‘भगवती, आप तो चिरकाल से असुरों के यहां निवास कर रही थीं, आज देवों पर यह कृपा कैसी?’ लक्ष्मी मुस्कराकर बोलीं, ‘देवराज, मैं सदैव घूमती रहती हूं, एक स्थान पर टिकना मुझे प्रिय नहीं।’ एक देवता ने जिज्ञासा से पूछा, ‘तो क्या आप पुनः देवलोक छोड़कर अन्यत्र चली जाएंगी?’ लक्ष्मी बोलीं, ‘यह भी संभव है।’ इन्द्र ने कहा, ‘महादेवी, आपको एक स्थान पर रहने में क्या आपत्ति है? क्या इस विचरण में कोई रहस्य या नियम है?’ लक्ष्मी ने उत्तर दिया, ‘रहस्य नहीं, यह मेरा नियम है।’ वरुण देव ने निवेदन किया, ‘कृपया वह नियम बताइए, ताकि हम उसका पालन कर आपको प्रसन्न रख सकें।’ लक्ष्मी बोलीं, ‘देवगण, जब तक आप संयमी, सदाचारी, दयालु, परिश्रमी, चरित्रवान और मधुरभाषी थे, तब तक मैं स्वर्ग में थी। जब आपने ये गुण त्याग दिए, तो मैं असुरों के पास चली गई — क्योंकि उन दिनों उनमें ये सद्गुण विद्यमान थे। परंतु जब वहां भी इन गुणों का ह्रास हुआ, तो मैं उन्हें छोड़कर यहां आ गई। जब तक स्वर्ग में ये गुण रहेंगे, मैं यहीं रहूंगी; किंतु इनके लुप्त होते ही मैं यहां से चली जाऊंगी।’
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