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आंतरिक वैराग्य व समता दृष्टि के लाहिड़ी महाशय

महासमाधि दिवस कल
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डॉ. मधुसूदन शर्मा

उन्नीसवीं सदी में क्रियायोग के प्रणेता श्यामाचरण लाहिड़ी ने गृहस्थ आश्रम के दायित्वों के निर्वहन के साथ एक मुक्त आत्मा के रूप में एक योगी का जीवन जिया। उन्होंने आंतरिक वैराग्य और समता की भावना के साथ सांसारिक संकटों का सामना करने का सामर्थ्य क्रियायोग साधकों को दिया। महावतार बाबाजी महाराज ने लाहिड़ी महाशय को क्रियायोग की सहज और सरल तकनीकों का ज्ञान देकर संतों-गृहस्थों के उत्थान करने का दायित्व दिया था। अपने संस्कारों और महावतार बाबाजी की दिव्य-दृष्टि से मिले मार्गदर्शन में, वे स्थितप्रज्ञ और ज्ञान में स्थापित होकर एक आत्म-साक्षात्कारी दिव्य पुरुष बने। उनके दर्शन की व्याख्या व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित थी।

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वर्ष 30 सितंबर, 1828 में दशहरे के दिन पश्चिम बंगाल स्थित नादिया के गांव घुरानी में गौरमोहन व मुक्ताकेशी को आशीर्वाद दिव्य बालक के रूप में मिला। लाहिड़ी जी का बचपन सामान्य न था, बाल्यकाल में ही उनकी मां नहीं रहीं। आश्चर्यजनक रूप से उन्हें तीन- चार साल की उम्र में भी अक्सर ध्यान में बैठे देखा गया। जब लाहिड़ी जी पांच वर्ष के थे, तो पैतृक घर बाढ़ में डूब गया। फिर उन्होंने वाराणसी में अधिकांश जीवन बिताया। उन्होंने उर्दू और हिंदी का अध्ययन किया। वेदों का पाठ, गंगा में स्नान और पूजा करना उनकी दिनचर्या थी।

कालांतर लाहिड़ी महाशय ने काशी के एक प्रतिष्ठित विद्वान की बेटी काशीमोनी के साथ 1846 में विवाह किया। जब काशीमोनी उन्हें पारिवारिक दायित्वों का बोध कराती तो कहते, ‘निश्चित रूप से भगवान विश्वनाथ जो ब्रह्मांड का पालन-पोषण करते हैं, वे एक छोटा परिवार बनाए रख सकते हैं।’ उनके दो बेटे व तीन बेटियां थीं। लाहिड़ी महाशय की पत्नी कालांतर उनकी शिष्या बनी और गुरु मां कहलायी।

दरअसल, लाहिड़ी महाशय की आध्यात्मिक खोज तब चरम पर पहुंची गई जब वर्ष 1861 में जीवन के तैंतीसवें वर्ष में लाहिड़ी महाशय का हिमालय की तलहटी में रानीखेत तबादला कर दिया गया। यहां वे गुरु मृत्युंजय महावतार बाबाजी से मिले। जिन्होंने उन्हें क्रिया योग की तकनीकों में दीक्षित किया। बाबाजी ने लाहिड़ी से कहा कि उनका शेष जीवन क्रियायोग संदेश फैलाने के लिए समर्पित होगा। बाबाजी महाराज ने लाहिड़ी महाशय को क्रियायोग की पवित्र और गुप्त तकनीकों का ज्ञान दिया। दरअसल, द्रोणगिरी पर्वत पर लाहिड़ी महाशय ने गुरु मृत्युंजय महावतार बाबा जी से दीक्षा लेने के बाद वहीं रहना चाहा। लेकिन बाबा जी ने गृहस्थ आश्रम में रहते हुए आध्यात्मिक उत्तरदायित्वों के पालन को कहा।

कालांतर वे सांसारिक कर्तव्य निभाने बनारस लौटे। वह एक पूर्णतः सिद्ध योगी बन गए, जो गृहस्थों, ब्रह्मचारियों और योगियों को समान रूप से मुक्ति का मार्ग दिखाने में सक्षम थे। उन्होंने समर्पित साधकों को क्रियायोग मार्ग में दीक्षित किया। उनकी उच्च आध्यात्मिक स्थिति के चलते उन्हें महाशय कहा गया, जो संस्कृत में आध्यात्मिक उपाधि है जिसके मायने हैं ‘बड़े दिमाग वाला’ है। उन्होंने श्रीमद्भगवत गीता पर नियमित प्रवचन दिए। लाहिड़ी महाशय की महासमाधि 26 सितंबर, 1895 को मां दुर्गा की महा अष्टमी पूजा के दिन हुई थी। उन्होंने कहा था : ‘जो लोग अमर क्रियायोग का अभ्यास करते हैं, वे कभी नश्वर व अनाथ नहीं होंगे।’

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