एक जंगल के आसपास ही कुछ लोगों की बस्ती बसी हुई थी। एक बुजुर्ग महिला उस जंगल से सूखी और गिरी हुई टहनियां बटोर लाती थी। अपने उपयोग के बाद वह उनको अपनी कुटिया के बाहर रख देती ताकि जिसे जरूरत हो वह ले जाये। उसकी यह आदत अब स्वभाव ही बन गई थी। लेकिन उसी बस्ती के एक युवक ने उसके इस आचरण को अजीब समझा। उसने महिला से पूछा, ‘अम्मा, रोज इतना कष्ट करके यह लाती हो। फिर आधे से अधिक बाहर जरूरतमंदों को दे देती हो?’ युवक की बातों में हैरानी थी। ‘बेटे मेरे लिए तो यही दान है। यही पुण्य है और यही सामाजिकता है। मेरे पास बस श्रम की पूंजी है। इसी को निखार रही हूं। तुम भी याद रखना कि अपने जीवन में श्रेय मिले या न मिले, अपनी मानवीय सहायता देना कभी बंद मत करना क्योंकि जो नि:स्वार्थ कर्म करते हैं वही सच्चे मनुष्य कहलाते हैं।’
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