युवावस्था में बेंजामिन फ्रैंकलिन अत्यंत तेज बुद्धि वाले थे, लेकिन उनमें थोड़ा अहंकार भी था। एक दिन उनके एक अनुभवी मित्र ने कहा, ‘बेंजामिन, तुम्हारी वाणी में आग है, पर दीपक की रोशनी नहीं।’ फ्रैंकलिन चौंक गए और पूछे, ‘इसका क्या अर्थ है?’ मित्र मुस्कुराए और बोले, ‘जो व्यक्ति हर समय जीतने की इच्छा करता है, वह लोगों के दिलों को हार जाता है। ज्ञान तब तक अधूरा है, जब तक उसमें विनम्रता का रंग न हो।’ यह बात फ्रैंकलिन ने गंभीरता से सुनी और निर्णय लिया कि उन्हें अपने स्वभाव को बदलने की आवश्यकता है। उन्होंने अपनी डायरी में एक जीवन सिद्धांत लिखा: ‘मैं बोलने से अधिक सुनूंगा।’ कुछ महीनों बाद, संसद में एक महत्वपूर्ण बैठक हो रही थी। कई नेता एक-दूसरे की बात काटकर चिल्ला रहे थे, लेकिन कोई भी समाधान नहीं ढूंढ़ पा रहा था। फ्रैंकलिन चुपचाप सबकी बातें सुनते रहे, फिर बहुत शांति से बोले, ‘यदि हम सब एक-दूसरे की बात सुन लें, तो समाधान स्वयं रास्ता खोज लेगा।’ कमरा अचानक शांत हो गया। लोगों ने पहली बार उनके शब्दों में गहराई महसूस की। बैठक के बाद, एक नेता उनके पास आया और कहा, ‘आज समझ में आया कि सबसे मजबूत आवाज़ वह नहीं होती जो चिल्लाती है, बल्कि वह होती है जो समझाती है।’ फ्रैंकलिन ने उत्तर दिया, ‘विनम्रता बुद्धि का द्वार है, और सुनना सीखने की पहली सीढ़ी।’
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