सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री सन 1926 ई. में एक शास्त्रार्थ सम्मेलन की अध्यक्षता करने भागलपुर गए थे। वे वहां अपने एक पूर्व परिचित के घर ठहरे और भोजन किया। थोड़ी देर बाद उनके कुछ मित्र उन्हें लेने आए और बड़ी व्यग्रता से उनके भोजन की व्यवस्था करने लगे। आचार्य जी ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘मेरे लिए दाल-चावल, शाक और रोटी की व्यवस्था गृहस्वामी ने कर दी है, और मैंने भोजन कर लिया है।’ यह सुनकर उनके मित्र चकित हुए और बोले, ‘गृहपति जाति के कलाल हैं, हम तो उनके हाथ का पानी भी नहीं पीते।’ आचार्य जी यह सुनकर बोले, ‘मैं जात-पात की परवाह नहीं करता। मेरी दृष्टि में ये सज्जन अत्यंत पवित्र, उच्च और सम्माननीय हैं। मेरी आत्मा इन्हें कभी कमतर नहीं मान सकती। मुझे एक-दो बार चर्मकार जाति के एक विद्वान भाई के हाथ का शरबत पीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक बार मैं जमनालाल बजाज के घर बैठकर एक ऐसी पंगत में भोजन कर चुका हूं, जिसमें ब्राह्मण, शूद्र, अछूत और मुसलमान सभी सज्जन मौजूद थे। उन सबके साथ भोजन करने पर भी मैं कतई किसी भी हालत में अशुद्ध नहीं हुआ। जाति का बड़प्पन अब लद चुका है, अब गुणों का राज्य है।’
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