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आलोचना से प्रेरणा

एकदा
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ब्रिटेन के महान नेता विंस्टन चर्चिल का बचपन शैक्षणिक दृष्टि से बहुत प्रभावशाली नहीं था। वे पढ़ाई में औसत छात्र माने जाते थे और उनके शिक्षक उन्हें अक्सर अनुशासनहीन और लापरवाह कहकर तिरस्कृत करते थे। एक बार उनके एक शिक्षक ने उन्हें डांटते हुए कहा था, ‘तुम जीवन में कुछ भी नहीं बन पाओगे, चर्चिल। न तुम्हारे पास बुद्धि है, न अनुशासन।’ यह बात चर्चिल के मन में गहराई तक उतर गई। उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया, कोई क्रोध नहीं जताया—बस एक संकल्प लिया कि वे स्वयं को सिद्ध करेंगे। उन्होंने जीवन में अनुशासन, आत्म-संयम और अध्ययन को अपनाया। वर्षों बाद, जब चर्चिल द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने और पूरे देश का नेतृत्व अपने कंधों पर उठाया, तब वही विद्यालय जिसके कुछ शिक्षकों ने उनका उपहास किया था, उन्हें बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित करता है। वहां, छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने केवल एक वाक्य कहा : ‘कभी हार मत मानो - कभी नहीं, कभी भी नहीं।’

प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार

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