एक बार की बात है, एक संत अपने शिष्यों के साथ सत्संग कर रहे थे। गुरुवर ने एक शिष्य को खड़ा किया और पूछा, ‘जब तुम खाने के बर्तन मांजते हो तो सबसे अधिक किस बात का ध्यान रखते हो?’ शिष्य ने उत्तर दिया, ‘बर्तनों को बाहर की अपेक्षा अंदर से अधिक साफ करना पड़ता है।’ गुरुवर ने शिष्यों से कहा, ‘बस यही बात मनुष्य के लिए भी है। मनुष्य को आंतरिक शुचिता पर अधिक ध्यान देना चाहिए। जिस प्रकार शरीर की शुद्धि के लिए नित्य-कर्म जैसे स्नान, हाथ-मुंह धोना जरूरी है उसी प्रकार मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यानी अन्तःकरण का परिशोधन भी आवश्यक है। यह आत्म-चिंतन आत्म- शोधन, आत्म-निर्माण, आत्म विकास की प्रक्रिया अपनाकर ही संभव है। इससे ही ज्ञान का प्रकाश तथा मुक्ति का रास्ता प्रशस्त होता है।’
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा