चेतनादित्य आलोक
हिंदू पंचांग के अनुसार ‘अधिक मास’ या ‘पुरुषोत्तम मास’ के शुक्ल पक्ष की एकादशी (11वीं) तिथि को ‘पद्मिनी एकादशी’ कहा जाता है। पुरुषोत्तम मास या अधिक मास हिंदू पंचांग की एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण एवं सटीक अवधारणा है, जो वास्तव में सौर वर्ष तथा चंद्र वर्ष के बीच के समय अथवा अंतराल को समायोजित करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। ‘वशिष्ठ सिद्धांत’ के अनुसार, अधिक मास हिंदू पंचांग में एक अतिरिक्त चंद्र महीना होता है, जो प्रत्येक तीन साल में एक बार आता है।
पद्मिनी एकादशी सामान्यतः हिंदू पंचांग के अनुसार आषाढ़ महीने में लगने वाले पुरुषोत्तम मास या अधिक मास में आती है। इसलिए इसे ‘आषाढ़ अधिक मास एकादशी’ भी कहा जाता है। अत्यंत पुण्यदायी होने के कारण इसका एक नाम ‘पुरुषोत्तम एकादशी’ भी है। वहीं पद्मिनी एकादशी को देश भर में ‘कमला एकादशी’ के नाम से भी जाना जाता है। पद्मिनी एकादशी पूरे भारत में किया जाने वाला एक प्रसिद्ध व्रत है, जिसे हिंदू मतावलंबी पूर्ण भक्ति-भाव एवं उत्साहपूर्वक करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि इस पुरुषोत्तम अथवा पद्मिनी एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति को पूर्व में किये कर्मों एवं पापों से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही इस व्रत के पुण्य प्रभाव से व्रतियों की सभी सांसारिक इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। पुराणों के अनुसार जो व्यक्ति पद्मिनी एकादशी व्रत का पालन सच्चे मन से करता है, उसे ‘विष्णु लोक’ की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने से व्यक्ति हर प्रकार की तपस्या, यज्ञ और व्रत आदि से मिलने वाले पुण्य के समान फल पाता है। ऐसी मान्यता है कि सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पुरुषोत्तम एकादशी के व्रत की कथा सुनाकर इसके महात्म्य से अवगत कराया था। कहते हैं कि अधिक मास की शुक्ल पक्ष की पद्मिनी एकादशी का व्रत निर्जल करना चाहिए। यदि निर्जल न कर पायें तो जल पीकर या अल्पाहार लेकर व्रत करना चाहिए। रात्रि में जागरण करके भगवान के सम्मुख नृत्य, गान आदि करना चाहिए। प्रति पहर मनुष्य को महादेव जी की पूजा करनी चाहिए। दूसरे दिन प्रातः स्नान कर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस प्रकार जो मनुष्य विधिपूर्वक भगवान की पूजा तथा व्रत करते हैं, उनका जन्म सफल होता है और वे इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अंत में भगवान श्रीविष्णु के ‘परमधाम’ को जाते हैं।
एकादशी तिथि को प्रातः नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पुण्य क्षेत्र में पहले गोबर, मृत्तिका, तिल, कुश तथा आमलकी चूर्ण से विधिपूर्वक स्नान कर फिर जल से स्नान करना चाहिए, परंतु स्नान करने से पूर्व शरीर में मिट्टी लगाते हुए उसी से प्रार्थना करनी चाहिए, ‘हे मृत्तिके! मैं तुमको नमस्कार करता हूं। तुम्हारे स्पर्श से मेरा शरीर पवित्र हो। समस्त औषधियों से पैदा हुई और पृथ्वी को पवित्र करने वाली तुम मुझे शुद्ध करो। तुम मेरे शरीर को छूकर मुझे पवित्र करो।’
अंत में भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना करनी चाहिए, ‘हे शंख, चक्र गदाधारी देवों के देव! भगवान जगन्नाथ! आप मुझे स्नान करने की आज्ञा दीजिये।’ तत्पश्चात् वरुण मंत्र जपकर पवित्र तीर्थों के अभाव में उनका स्मरण करते हुए जल से स्नान करना चाहिए। स्वच्छ और सुंदर वस्त्र धारण कर संध्या-आरती, तर्पण आदि करके मंदिर में भगवान की धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, केसर आदि से पूजा करनी चाहिए। भक्तजनों के साथ भगवान के सामने पुराण की कथा सुननी चाहिए।