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निष्काम सेवा से मानव का उत्थान

श्री कृष्ण
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श्री कृष्ण का जीवन केवल भक्ति और दिव्यता का प्रतीक नहीं, बल्कि सेवा, समर्पण और महान व्यक्तित्व का अद्वितीय उदाहरण है। उनके चरित्र में हमें विनम्रता, सच्चाई, और निष्काम सेवा की महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है।

प्रभा पारीक

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हम भारतीय घरों में हर मां यशोदा है और हर बालक कृष्ण है। कृष्ण नटखट, चंचल और माखन चोर हैं। कृष्ण ने स्वयं ही हर नाम को हंसकर स्वीकार किया। प्रश्न है कि यशोदा ने कृष्ण को ऐसी कौन-सी शिक्षा दी कि वह ‘महान व्यक्तित्व’ बने।

श्री कृष्ण सबके प्रिय हैं और हमेशा रहेंगे। अब तो विदेशियों के लिए भी उनका चरित्र एक नया उत्साह और प्रेरणा जगाता नजर आ रहा है। उनकी एक लीला को सुनकर, जिज्ञासा वश पूरा चरित्र जानने को उत्सुक विदेशी भारत की शरण में आकर कृष्ण के जीवन के गूढ़ तत्वों को जानने का प्रयास करते हैं।

श्री कृष्ण एक ऐसा व्यक्तित्व हैं, जो सभी के लिए पूज्य हैं। व्यक्ति साधक बनकर और भक्त बनकर उनका चरित्र गाते नहीं थकता। चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, मीराबाई आदि श्रीकृष्ण भक्ति में सराबोर, आकंठ उनके प्रेम में डूबे हुए थे। श्री कृष्ण की ‘जगतगुरु’ वाली छवि गीता में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उनका चरित्र महाभारत में भी महत्वपूर्ण है, परंतु महाभारत के माध्यम से भी श्री कृष्ण को सम्पूर्ण रूप से समझा नहीं जा सकता।

भागवत में श्री कृष्ण के भगवत स्वरूप का चित्रण किया गया है। श्री कृष्ण का गोकुल, वृंदावन, मथुरा का चरित्र जानने के लिए हमें उनके बाल्यकाल और किशोरावस्था में गहरे से जाना होगा। मां यशोदा के साथ बिताए हर एक पल में कृष्ण के मन में संस्कार रचे-बसे थे।

हम लोग गीता के श्री कृष्ण को इतने अच्छे से जानते हैं, जितना गोपाल कृष्ण को जानते हैं। जो मनोहर हैं, मोहक हैं, सरल हैं और साथ ही चंचल भी हैं। श्री कृष्ण का बाल स्वरूप सभी के लिए परिचित और प्रिय है। उन्होंने गोकुल में गायों के पालन का महत्व अपने चरित्र से बताया।

योगेश्वर श्री कृष्ण राजा बनने के बजाय लोगों के सेवक बने रहे। लोगों ने उन्हें सेवक ही माना, जैसे वे अपना ही मित्र हों। जब महापुरुष होते हुए भी महापुरुष होने जैसा विचार उनके मन में कभी नहीं आया, तो यही व्यक्ति की सबसे बड़ी महानता मानी जाती है। श्री कृष्ण में विनम्रता की अति थी। वे उच्चकोटि के बालक थे, जो आगे चलकर महान व्यक्तित्व बने। उन्होंने हमेशा सामान्य जीवन जीने में विश्वास किया और मां की डांट खाकर भी बालकों को माखन दिया।

श्री कृष्ण स्वयं राजा बनने के इच्छुक नहीं रहे। कंस का वध करने के बाद मथुरा का संपूर्ण राज उनके हाथ में आ गया था, लेकिन उन्होंने उग्रसेन को गद्दी पर बिठाया। उनके हाथ में द्वारका का राज्य आया, लेकिन उन्होंने बलराम को दे दिया। उन्होंने अपना समय शांति स्थापना और सेवा में लगाया। महाभारत के महासंग्राम में पांडवों की विजय में श्री कृष्ण का महत्वपूर्ण योगदान था, लेकिन उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर का ही राज्याभिषेक किया। यही 'निष्काम सेवा' का असली रूप है। श्री कृष्ण जैसा अनासक्त सेवक कोई और नहीं हो सकता, जिसने छोटी से छोटी सेवा को भी सहजता से स्वीकार किया।

कृष्ण अवतार में उन्होंने यह निश्चय किया कि अब सेवा करनी है, न कि सेवा लेना है। श्री कृष्ण ने न केवल मनुष्यों, बल्कि पशुओं की भी सेवा की। राम आदर्श राजा बने, जबकि कृष्ण आदर्श सेवक बने। बचपन में उनका गायों के साथ और बड़े होने पर घोड़ों के साथ संबंध था। श्री कृष्ण की मुरली की ध्वनि सुनकर गायें आनंदित हो जाती थीं, और वे उन्हें स्नेह से सहलाते थे, जैसे वे उनके सखा हों। महाभारत के युद्ध में भी श्री कृष्ण ने अपनी सेवा और समर्पण का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के दौरान श्री कृष्ण ने स्वयं सेवा का अनुरोध किया और कहा, ‘मुझे भी सेवा का अवसर मिले।’ उनका यह भाव दिखाता है कि सेवा में न तो कोई काम छोटा होता है, न बड़ा।

श्री कृष्ण के आदर्श को अपनाकर हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। उनका नाम केवल भक्ति और दिव्यता का प्रतीक नहीं, बल्कि सेवा और समर्पण का सर्वोत्तम उदाहरण है।

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