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भारी प्यार का पलड़ा

एकदा
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एक बूढ़ी औरत सड़क किनारे रेहड़ी पर संतरे बेचती थी। अक्सर एक युवक वहां आता, संतरे खरीदता। संतरे लेने के बाद वह एक संतरा उठाता, उसकी एक फांक तोड़कर चखता और कहता, ‘अम्मा, ये संतरा कम मीठा लग रहा है, ज़रा आप भी देखो।’ बूढ़ी औरत भी एक फांक चखती और मुस्कुराकर कहती, ‘नहीं बाबू, ये तो बहुत मीठा है!’ युवक उस संतरे को वहीं छोड़ देता और बाकी संतरे लेकर गर्दन झटकते हुए आगे बढ़ जाता। अक्सर वह अपनी पत्नी के साथ आता था। एक दिन पत्नी ने पूछा, ‘ये संतरे तो हमेशा मीठे ही होते हैं, फिर तुम हर बार ऐसी नौटंकी क्यों करते हो?’ युवक मुस्कुरा कर बोला, ‘अम्मा खुद संतरे नहीं खाती, और मैं चाहता हूं कि वो भी चखे। इस बहाने मैं उन्हें एक फांक खिला देता हूं।’ एक दिन पास की सब्ज़ी बेचने वाली औरत ने बूढ़ी मां से पूछा, ‘अम्मा, ये लड़का हर बार इतना हल्ला करता है, और मैं देखती हूं तुम उसकी बातों में आकर पलड़े में कुछ ज़्यादा ही संतरे तौल देती हो।’ बूढ़ी मां ने धीमे स्वर में जवाब दिया, ‘उसकी चख-चख संतरे के स्वाद के लिए नहीं होती, वो तो मुझे संतरा खिलाने का बहाना ढूंढ़ता है। वो सोचता है मैं उसकी बात नहीं समझती, पर मैं उसकी नीयत समझती हूं— उसमें प्यार है, अपनापन है। बस उसी प्यार में पलड़ा खुद-ब-खुद भारी हो जाता है।’

प्रस्तुति : नरेंदर कुमार मेहता

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