जसबीर केसर
आज श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों और माता गुजरी जी का शहीदी दिवस है। महज 9 और 7 साल की उम्र में शहीद हुए साहिबजादा जोरावर सिंह और फतह सिंह ने जुल्म के आगे सिर न झुकाकर जहां बेमिसाल शूरवीरता का परिचय दिया, वहीं सूबा सरहिंद वजीर खान ने उन्हें दीवार में चिनवाकर अत्याचार की सारी हदें लांघ दी। इस घटनाक्रम को ‘साका सरहिंद’ के नाम से याद किया जाता है।
मुगल फौज के साथ एक युद्ध के दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी को आनंदपुर साहिब का किला छोड़ना पड़ा। मुगलों ने समझौता किया था कि गुरु जी किला छोड़ दें तो हमला नहीं किया जाएगा। लेकिन, समझौता तोड़कर दुश्मन फौज ने उनका पीछा करना शुरू कर दिया। सरसा नदी के किनारे भीषण जंग हुई। इस नदी को पार करते हुए कई सिख बह गये और गुरु गोबिंद सिंह जी का परिवार बिछुड़ गया। दो बड़े साहिबजादों और कुछ सिखों के साथ गुरु साहिब चमकौर में बनी एक कच्ची ‘गढ़ी’ में पहुंचे। मुगल सेना ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा और गुरु साहिब के दोनों बड़े साहिबजादे अजीत सिंह, जुझार सिंह दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हाे गये।
दूसरी तरफ छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह और फतह सिंह अपनी दादी माता गुजरी के साथ अलग राह पर थे। थोड़ी दूरी पर उन्हें अपना रसोइया गंगू मिल गया। वह उन्हें अपने घर ले गया। रात को उसका मन बेईमान हो गया और उसने माता गुजरी के रुपये-पैसे चुरा लिये और इनाम के लालच में मोरिंडा के कोतवाल काे सूचना देकर तीनों को गिरफ्तार करवा दिया। कोतवाल ने उन्हें एक रात हवालात में रखा और फिर सरहिंद के सूबेदार वजीर खान के पास ले गया। वजीर खान ने अपने एक सलाहकार सुच्चा नंद के उकसाने पर पहले साहिबजादों को इस्लाम कबूल करने के लिए मनाने की कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने तो कत्ल करने का फैसला सुना दिया। दोनों साहिबजादों और माता गुजरी को दो रातें ठंडे बुर्ज में रखा गया। फिर दोनों साहिबजादों को दीवार में चिनवा दिया।
वजीर खान की क्रूरता यहीं नहीं रुकी। दीवार सिर तक आ गयी तो साहिबजादों के सिर कलम कर दिए गये। फिर दीवार गिराकर धड़ निकाले गये और ऐलान किया गया कि कोई व्यक्ति उनका अंतिम संस्कार करना चाहता है तो वह उतनी जगह में सोने की मुहरें खड़ी करके जमीन खरीद ले। वहां के दीवान टोडर मल ने मुहरें खड़ी करके जमीन खरीदी और साहिबजादों का अंतिम संस्कार किया। उधर, माता गुजरी ने साहिबजादों को शहीद होते देख शोक से और कुछ बुर्ज में ठंड न सहते हुए दम तोड़ दिया।
याद में बने गुरुद्वारे : छोटे साहिबजादों को जहां शहीद किया गया, उस जगह अब गुरुद्वारा फतहगढ़ साहिब है। जिस स्थान पर उनका अंतिम संस्कार किया गया, वहां गुरुद्वारा ज्योति स्वरूप है। फतहगढ़ साहिब में हर साल साहिबजादों की याद में जोड़ मेला लगता है। इसे ‘सभा’ या ‘सिंह सभा’ भी कहा जाता है। जहां गुरु साहिब का परिवार बिछुड़ा, वहां गुरुद्वारा ‘परिवार बिछोड़ा’ बना है और जिस जगह बड़े साहिबजादे शहीद हुए, वहां गुरुद्वारा ‘कत्लगढ़’ बना हुआ है।