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प्रकृति के प्रति कृतज्ञता

एकदा
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एक बार शहर से आए कुछ बालक नदी किनारे पिकनिक मना रहे थे। उन्होंने देखा कि गांव की महिलाएं नदी को प्रणाम कर रही हैं। उन्होंने पूछा, ‘क्या इस तरह नदी की पूजा का कोई मतलब है?’ महिलाओं ने जवाब दिया, ‘क्या इस नदी को हमारे नमन करने से कुछ अनहोनी हो गई?’ बालक बोले, ‘नहीं! ऐसी बात नहीं है। यह देखकर थोड़ी हैरानी हुई कि यह नदी न तो आपकी किसी बात का उत्तर दे सकती है और न ही आपके नमन करने पर अपनी प्रसन्नता जाहिर कर सकती है।’ महिलाओं ने कहा, ‘बालकों! तुम्हारा सोचना गलत है। यह नदी भले बोलकर उत्तर न दे सकती हो, पर जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की एक भाषा होती है, उसी प्रकार प्रकृति की भी अपनी भाषा होती है। देखो तो, इस नदी में भी प्राण हैं, उसकी भी अपनी भाषा है। इस नदी के जल से हमने खेतों की सिंचाई की है। इसकी शीतल जलधारा ने ग्रीष्मकालीन ताप में शीतलता प्रदान की है। धूप से परेशान होकर जो राहगीर आया, इसने बिना भेदभाव सबको जल प्रदान किया है। इसने न केवल गांव की खूबसूरती बढ़ाई बल्कि जीव-जंतु, पंछी, और पौधों को भी जीवन दिया है। यह हमारी माता से कम नहीं है। इसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना भी तो परम कर्तव्य है। प्रत्येक जीव को समस्त प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।’ बालकों ने अनुभव किया कि सचमुच नदी एक अद्भुत शांति प्रदान कर रही है।

प्रस्तुति : मुग्धा पांडे

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