Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

प्रभु की लीला, मनुष्य की सीमा

जीवनधारा
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

श्रीराम जी का विवाह और राज्याभिषेक, दोनों ही शुभ मुहूर्त देखकर शास्त्रों के अनुसार विधिपूर्वक संपन्न किए गए थे। लेकिन फिर भी न तो उनका वैवाहिक जीवन सुखद रहा और न ही राज्याभिषेक पूर्ण हो सका। विवाह के पश्चात उन्हें वनवास मिला और राज्याभिषेक के दिन ही उन्हें राजमहल की बजाय वन की ओर प्रस्थान करना पड़ा। यह सब विधि का विधान था।

इस दुखद परिस्थिति का कारण महर्षि वशिष्ठ जी से पूछा गया तो उन्होंने कहा– हे भरत!क भावी (भाग्य) बहुत प्रबल होता है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश – ये सभी विधाता के हाथ में होते हैं। मनुष्य चाहकर भी भाग्य को नहीं बदल सकता।

Advertisement

श्रीराम, जो धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं, जिनका जीवन मर्यादा और सत्य की मिसाल है, वे भी अपने भाग्य को नहीं टाल सके। उन्हें वनवास मिला, पत्नी सीता से वियोग सहना पड़ा, और अंत में उन्होंने सरयू में जल समाधि लेकर अपनी लीला का समापन किया।

श्रीकृष्ण, जिन्हें योगेश्वर कहा गया, जिन्होंने गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाया – वे भी अपने यादव वंश के विनाश को नहीं रोक सके। आपसी कलह से पूरा वंश नष्ट हो गया।

महादेव शिव, जो महामृत्युञ्जय के अधिष्ठाता हैं, वे भी अपनी प्रिया सती की मृत्यु को नहीं रोकन सके। त्रिकालदर्शी होते हुए भी वे विधि के विधान को नहीं बदल सके।

रामकृष्ण परमहंस, जिन्हें दिव्य सिद्धियां प्राप्त थीं और जिन्होंने हजारों लोगों को ईश्वर के मार्ग पर चलाया – वे भी कैंसर जैसी बीमारी से ग्रसित होकर शरीर त्याग गए। उन्होंने स्वयं कहा था– ‘यह शरीर नश्वर है, आत्मा ही अमर है।’

रावण, जो अपार बल और ज्ञान का स्वामी था, शिव का परम भक्त था– वह भी अपने अहंकार के कारण विनाश से नहीं बच सका।

कंस, जो जानता था कि श्रीकृष्ण ही उसका अंत करेंगे, फिर भी विवश था –नियति को टाल न सका।

इन सभी घटनाओं से यही सिद्ध होता है कि मनुष्य अपने जन्म के साथ ही जीवन और मरण, यश और अपयश, लाभ और हानि, स्वास्थ्य और रोग, शरीर का स्वरूप, परिवार, समाज, देश और स्थान – इन सबका निर्धारण लेकर आता है। मनुष्य को यह भ्रम होता है कि वह सब कुछ नियंत्रित कर रहा है, किंतु वास्तव में सब कुछ ईश्वर के संकेत से ही चलता है।

इसलिए साधक को चाहिए कि वह मन, वचन और कर्म से सहज, सरल और सदाचारी बना रहे, सदैव प्रभु का स्मरण करता रहे और अपने कर्तव्यों को श्रद्धा और निष्ठा से निभाए।

मुहूर्त न तो जन्म के लिए तय होता है, न मृत्यु के लिए। जब जन्म और मृत्यु ही निश्चित नहीं हैं, तो बाकी सब कुछ क्षणिक और अस्थायी है। केवल प्रभु का नाम ही शाश्वत सत्य है। इसलिए सदैव ईश्वरमय रहो, और आत्मा को परमात्मा के निर्देशों में लीन कर दो। यही सच्चा जीवन है। नियति को स्वीकार करना और प्रभु में समर्पित रहना – यही जीवन का सार है।

हमेशा अपना कर्म करो, और बाकी सब प्रभु के ऊपर छोड़ दो। वही सब कुछ करने वाले हैं, हम और आप तो बस कठपुतली हैं, जो प्रभु की इच्छा से चल रहे हैं। तो जैसा प्रभु को चलाना है, वैसे ही चलते रहो, और जैसा प्रभु को करना है, उसे होने दो।

Advertisement
×