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आत्मज्ञान का रत्न

एकदा

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एक बार गौतम बुद्ध अपने अनुयायियों को साथ लेकर पदयात्रा कर रहे थे। चलते-चलते सभी थक गए, तो वे एक आरामदायक स्थान पर विश्राम करने लगे। अचानक, आकाश में अंधेरा गहरा होने लगा। मन की बेचैनी को दूर करने के लिए सभी अनुयायी गौतम बुद्ध से अपनी-अपनी बात कहने लगे। इसी बीच एक अनुयायी ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए पूछा, ‘आप कहते हैं कि चंद्रमा की चौदह कलाएं होती हैं। क्या उसी तरह से मनुष्य के पास भी चौदह रत्न होते हैं? कृपया, इसका ज्ञान दीजिए।’ यह सुनकर बुद्ध बहुत शांतचित्त से बोले, ‘तेरह धन तो प्रकृति जन्य हैं, जो प्रकृति ने आपको उपहार स्वरूप दे दिए हैं। वे हैं—पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां और मन, बुद्धि और अहंकार। अब चौदहवां रत्न तो वह है, जिसे आपको प्रयास करके स्वयं खोजना पड़ेगा।’ ‘मगर गुरुदेव, मैं नहीं समझ सका कि वह चौदहवां रत्न क्या है?’ अनुयायी ने फिर पूछा। गौतम बुद्ध मुस्कराए और बोले, ‘चौदहवां रत्न या धन है—चित्त। यह चित्त तभी सच्चे रूप में उपलब्ध होता है, जब भीतर ज्ञान का उजाला चमकता है। जब मन में प्रकाश होगा, तभी अंधकार छंटेगा और चित्त सुसंगठित और शांत होगा।’

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