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आत्म-प्रकाश से कल्याणकारी जीवन तक

सत्यम‍् शिवम‍् सुंदरम‍्

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अतः ‘सत्यम‍्, शिवम‍्, सुंदरम‍्’ का सीधा सरल अर्थ यह भी हो सकता है कि जो सत्य है, वह शिव है और जो शिव है, वह सुंदरम‍् है। अर्थात‍् सत्य ही कल्याण करने वाला है और जो भी कल्याणकारी है, वह स्वतः ही सुंदर है, सुंदरम‍् है।

सत्यम‍्, शिवम‍्, सुंदरम‍्, ये तीन शब्द सुनने में कितने पावन लगते हैं। कितने पूर्ण लग रहे हैं। कितने संतुष्ट करने वाले महसूस हो रहे हैं। हालांकि, ये तीनों शब्द भारतीय सनातन वाङ्मय में कहीं भी एक साथ प्रयुक्त नहीं हुए, अपितु तीनों शब्द अलग-अलग पुराणों, वेदों और उपनिषदों में खूब महिमामंडित किए गए हैं।

अटल और अपरिवर्तनीय मूल

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सत्यम‍् तो सत्य है। इसकी महिमा बड़ी गूढ़ है। सत्य वह है जो सदा-सर्वदा एक रूप है, अटल है, अपरिवर्तनीय है। नित्य है, शाश्वत है। जो इस सृष्टि का मूल है, वही सत्य है। इस सत्य की जागृति का वर्णन तीनों युगों में प्राप्त होता है। सत्य वह ही तो है जो सदा विजय प्राप्त करता है।

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सत्य की विजय में प्रयास!

तो फिर विचार का बिंदु यह है कि जब सत्य विजयी है, सदा-सर्वदा से, तो फिर ऐसी ज़रूरत क्यों पड़ती है कि हर बार, हर काल में, सब मनुष्यों को बार-बार सत्य को विजयी करवाना पड़ता है। सत्य की विजय, सत्य की तरह अटल क्यों नहीं है? एक ही बार में पूरी सृष्टि में सत्य का राज स्थापित आख़िर क्यों नहीं हो पा रहा? ये सब प्रश्न सहज चिंतन में आते हैं।

कल्याणकारी और शुभ भाव

शिवम‍् अर्थात‍‍् कल्याणकारी। जो सबके हित में है, जो सबके लिए शुभ है, वह शिवम‍् का प्राकृतिक भाव है। ‘शिव’ शब्द ‘शिवम‍्’ के रूप में ऋग्वेद मण्डल 10, सूक्त 92 – मंत्र 9 में इसका अर्थ— ‘आज हम रुद्र—वीरों के रक्षक और संकटों को दूर करने वाले—की स्तुति करते हुए उन्हें नमस्कार अर्पित करते हैं। वे देवता अपने कल्याणकारी (शिव) दिव्य साधनों और सामर्थ्य से, अपनी महिमा के प्रभाव से, स्वर्गलोक से हम सबकी रक्षा करते हुए आगे बढ़ते हैं।’ इस श्लोक को देखने पर ज्ञात होता है कि ‘शिव’ को यहां कल्याणकारी के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। अर्थात‍् जो कुछ भी हमारे लिए कल्याणकारी है, वह शिव है।

आंतरिक सौंदर्य का स्वरूप

सुंदरम‍् शब्द वैसे तो ‘सुंदर’ शब्द के निकट ही है, किंतु जब ‘सुंदरम‍्’ कहते हैं तो यह सुंदर स्वरूप का भास देता प्रतीत होता है। सरल अर्थ में, सत्य ही कल्याण और सौंदर्य है।

अतः ‘सत्यम‍्, शिवम‍्, सुंदरम‍्’ का सीधा सरल अर्थ यह भी हो सकता है कि जो सत्य है, वह शिव है और जो शिव है, वह सुंदरम‍् है। अर्थात‍् सत्य ही कल्याण करने वाला है और जो भी कल्याणकारी है, वह स्वतः ही सुंदर है, सुंदरम‍् है।

कल्याणकारी भी हो

किंतु यह सत्य है कहां? यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं तो जो कुछ भी है, वह हमारे अपने भीतर है। सत्य भी हमारे भीतर है, असत्य भी हमारे भीतर है। चूंकि जो हमारा निजी सत्य है, वह कभी-कभी सबके लिए कल्याणकारी नहीं होता न ऐसा दिखता है। ऐसी स्थिति में हमें किसी असत्य को सत्य बनाकर, कल्याणकारी जैसा बनाकर दूसरों के समक्ष रखना पड़ता है। यह ही विकार है। जब सत्य ही विकृत हो गया, तो कल्याणकारी कैसे हो सकता है और जब कल्याणकारी ही नहीं है, तो उसके सुंदरम‍् होने का तो प्रश्न ही कहां उठता है?

उपनिषद कहते हैं—सत्य हमेशा से है। हमेशा रहेगा। शरीर, विचार, विषय और वस्तुएं बदलती हैं, तो ये सत्य नहीं हैं। तो फिर अध्यात्म हमें इनमें फंसने को भी नहीं कहता। जो सनातन है, वह सत्य है। इसलिए उसको जानने की यात्रा ही तो अध्यात्म है।

आत्मा का प्रकाश

शरीर बदलता है तो सत्य नहीं है। लेकिन आत्मा का प्रकाश सत्य है जो कभी नहीं बदलता। सूर्य का प्रकाश कभी नहीं बदलता, यह भी सत्य ही है। हमारी वो अनुभूतियां जो सदा-सर्वदा एक समान रहती हैं, वे भी सत्य हैं। दया, धर्म, करुणा—ये भाव सत्य के सान्निध्य से ही तो पनपते हैं।

प्रकृति में सत्य, शिव और सुंदरम‍्

सत्य कल्याणकारी है, जो सबके हित में है, वह ही सत्य है। जो सबके हित में है, वह सरल ही तो है। जल सत्य है और वह सबके हित में ही है। वायु सत्य है, वह सबका हित करता है। श्वास दर श्वास वायु बिना किसी भेद के हित में जुटी है।

जो सबके हित में है, वह स्वतः ही सुंदर है। जल के प्रवाह स्रोत कितने सुंदर हैं, वायु के झोंके कितने सुंदर हैं। सूर्य की सुहानी तेजस्वी किरणें इस धरा धाम को प्रकाशित करती हैं, कितनी सुंदर हैं।

आत्मप्रकाश का प्रभाव

यह प्रकाश हमारी स्वयं की आत्मा का भी है। यह वह आत्मप्रकाश है जो सबके भीतर है। उसे देखने की क्षमता का ही मात्र अभाव है।

जब यह अभाव मिटता है, तो हमारे आत्म-प्रकाशन का प्रभाव हमारे आभा मंडल पर आता है और तब यह स्वरूप, प्रकाश रूप में हमारे मुखमंडल और व्यक्तित्व में झलकता है, ठहरता है।

अर्थात‍् हम भीतर से जितने सत्य के निकट होते जाएंगे, उतने ही हम कल्याणकारी होंगे, शिव होंगे, शिवम‍् होंगे और जितने शिवम‍् हम होंगे, उतने ही सुंदर हम हो जाएंगे। हमारा आचरण, हमारा मनन, हमारा चिंतन सब सुंदर हो जाएगा।

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