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मन विजय से मुक्ति

एकदा
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आचार्य पुनर्वसु आत्रेय अपने शिष्य अग्निवेश सहित छह शिष्यों को आत्मा और मन का रहस्य समझा रहे थे। अग्निवेश ने पूछा कि जब मनुष्य मर जाता है तो उसकी चेतना कहां चली जाती है और जीवित रहते हुए मन, इन्द्रियाें और आत्मा का आपसी संबंध क्या है। ऋषि आत्रेय ने समझाया कि मन अपने आप में अचेतन है, यह केवल साधन है। आत्मा ही इसे चेतना प्रदान करती है और कार्य कराने में सक्षम बनाती है। जीवित अवस्था में जब आत्मा शरीर में स्थित होती है तब प्राण का संचार, मन की गति, इन्द्रियों का अनुभव, इच्छा-द्वेष, सुख-दुःख, स्मृति और बुद्धि जैसे लक्षण प्रकट होते हैं। अग्निवेश ने आगे प्रश्न किया कि मृत्यु के बाद क्या होता है। आत्रेय ने शांत स्वर में कहा कि मृत्यु के बाद आत्मा शरीर को छोड़ देती है और शरीर मात्र पंचभूतों का ढेर रह जाता है। फिर अग्निवेश ने पूछा कि यदि ईश्वर है तो आत्मा कभी पापयुक्त योनि में क्यों जन्म लेती है, क्या उसे कोई वहां धकेलता है। इस पर आत्रेय बोले कि आत्मा को कोई बाहर से प्रेरित नहीं करता, उसके अपने ही कर्म उसे खींचकर अनिष्ट योनियों तक ले जाते हैं। धर्म उसे ऊर्ध्वगति देता है और अधर्म नीच योनियों में गिराता है। यही आत्मा की स्वतंत्रता है। कर्म का चयन करना, पर परिणामस्वरूप फल भोगना अनिवार्य हो जाता है। अग्निवेश ने फिर पूछा कि क्या मुक्ति का कोई उपाय है। आत्रेय ने गंभीरता से उत्तर दिया कि मन पर विजय पाना ही उपाय है।

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