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क्रोध से मुक्ति

एकदा
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एक व्यापारी एक महात्मा के पास जाकर बोला, ‘मैं अपने क्रोध की आदत से छुटकारा पाना चाहता हूं। कृपया मार्ग बताएं।’ महात्मा बोले, ‘तुम कल सुबह आना।’ दूसरे दिन जब व्यापारी महात्मा के पास पहुंचा तो वह पास ही एक नदी में खड़े हुए थे। व्यापारी को लगा, महात्मा स्नान कर रहे हैं। इसलिए वह किनारे पर बैठकर उनकी प्रतीक्षा करने लगा। दोपहर हो गई पर महात्मा जी बाहर नहीं आये। तब अधीर होकर व्यापारी बोला, ‘महात्मा जी आपने मुझे क्रोध से निजात पाने का उपाय बताने के लिए आज बुलाया था।’ ‘हां, पुत्र मुझे स्मरण है। मगर यह नदी मुझे छोड़ती ही नहीं। यह मुझमें समाई हुई है। मैं बाहर नहीं निकल पा रहा। निकलते ही तुम्हें उपाय बता दूंगा।’ व्यापारी ने कहा, ‘महात्मा जी यह नदी आपमें नहीं समाई है। आप इसमें समाए हो। कृपया बाहर निकलने का प्रयत्न करिए।’ महात्मा ने पैर आगे बढ़ाया और झट से बाहर निकल कर बोले, ‘तुमने बिल्कुल ठीक कहा पुत्र। मैं ही नदी में समाया हुआ था। बिल्कुल ऐसे ही क्रोध ने तुम्हें नहीं पकड़ रखा, तुमने ही क्रोध को पकड़ रखा है। इससे बाहर निकलने का यत्न करो पुत्र।’ महात्मा की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, ‘आप ठीक कहते हैं महात्मा जी। आज से ही मैं क्रोध से मुक्ति का यत्न करूंगा।’

प्रस्तुति : सरस्वती रमेश

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