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अमृत पीने जैसा है किसी को माफ करना

सम्वत्सरी महापर्व : 20 सितंबर

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मुनि वीरेन्द्र

राह के कांटों से दिल में लगे कांटे असंदिग्ध रूप से ज्यादा पीड़ाकारी होते हैं। आज स्वच्छता का युग है। विकासशील भारत की सड़कें भी निष्कंटक हैं अत: पांव में कांटे लगने की प्राचीन संभावना लुप्तप्राय है, किन्तु आज परिवार, समाज व संस्थाओं की स्थिति देखकर लगता है कि कांटे राहों से उठकर दिलों में जा बसे हैं। रोष-द्वेष सर्वत्र विद्यमान हैं। ऐसे में हमें आवश्यकता है कवि के शब्दों को आत्मसात‍् करने की। यही संदेश अढ़ाई हजार वर्ष पहले जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने भी दिया, न सिर्फ संदेश दिया बल्कि इसे एक पर्व का रूप दे दिया। आज भी भादवा सुदी पंचमी के दिन जैन समाज में यह महापर्व तप, त्याग व क्षमा-भाव के साथ मनाया जाता है। इस दिन पुरानी बातों को भुलाकर अपनी गलतियों के लिए क्षमा-याचना की जाती है व उदार हृदय से औरों की गलतियों के लिए क्षमादान किया जाता है।

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भगवान महावीर स्वामी का संदेश है कि जो व्यक्ति घटना के एक वर्ष बाद भी मन से द्वेष व वैर भाव से मुक्त नहीं हो पाता, बल्कि रंजिशों को बढ़ाता ही चला जाता है, उसकी आत्मा के प्रेम के पौधे जल जाते हैं व प्रेम-हीन हृदय में धर्म की फसल पैदा नहीं हो सकती, ‘प्रेम गली अति सांकरी, ता मे दो न समाही।’ ठीक इसी तरह आत्मा में अनंत द्वेष व धर्म दोनों एक साथ नहीं रह सकते।

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दरअसल, द्वेष भाव आत्मा के नुकसान के साथ-साथ रोगोत्पत्ति का भी भी मुख्य कारण है। द्वेष व वैर का भाव यदि गहरा व लम्बा हो जाए तो यह ग्रन्थियों से होने वाले रासायनिक स्राव को असंतुलित करता है। जिससे मानसिक तनाव, अनिद्रा आदि मानसिक समस्याएं पैदा होती हैं। वैर से निराशा व निराशा से दिल से सम्बधित समस्याओं का भी गहरा सम्बन्ध है। वैर भावना से दिल की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। वैर भावना राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का भी मुख्य कारण है। हिन्दू-मुस्लिम आदि से सम्बन्धित अधिकतर मसलों में वैर-भाव ही क्लेश की जड़ है। अतीत के काले अध्याय दिमागों में ज़हर भरने का काम करते हैं। फिर यही ज़हर गाहे-बगाहे खून-खराबे की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को अंजाम देता है।

इतिहास ऐसे किस्सों से भरा पड़ा है। आज आवश्यकता है कि इंसान इंसान के नजदीक आए, सिर्फ हाथ ही न मिलें, दिल भी मिलें। उसके लिए दो ही रास्ते हैं। एक इंसान गलती ही न करे, किन्तु यह सरासर असंभव है। गलती न करने की बजाय यह बात ज्यादा सार्थक लगती है कि ऐसी बड़ी गलती न करे, जिसे माफ करना सामने वाले के लिए असंभव हो जाए। दूसरा विकल्प है कि यदि अपने से गलती हो जाए तो माफी मांग ले व सामने वाले इंसान से गलती हो जाए तो माफ कर दे।

माफ करना अमृत पीने जैसा है। माफ करने से हमें सामने वाले के प्रति वैर का भार अपने दिमाग में नहीं रखना पड़ता। वैर का विषय बेशक सामने वाला है, पर वैर का भार व दर्द तो वैर रखने वाले को ही ढोना पड़ता है, जो कि निश्चित ही दुख रूप है। अत: अपने ऊपर भला करें व वैर भाव से मुक्त होकर क्षमाभाव का अमृत पान करें। ताकि आपका मन निर्भार रहे व आपका दिन चैन से कटे व आपकी रातें आराम से बीतें।

‘दुश्मनी का सफर कदम दो कदम,

तुम भी थक जाओगे हम भी थक जाएंगे॥’

दुश्मनी का सफर ऐसा है जैसे भार उठाकर पहाड़ पर चढ़ना हो व प्रेम का सफर ऐसा है जैसे मां की गोद में चढ़कर दोनों हथेलियां खोलकर आसमान को छूने की कोशिश जैसा आनन्दप्रद है। मां की गोद छोड़कर द्वेष-वैर की आग में तपना, नफरत के पत्थर ढोना, अपने जीवन का अपने हाथों अपमान करना है। क्षमाभाव अपने द्वारा अपना सम्मान है। सम्वत्सरी पर्व आत्म-सम्मान का पर्व है।

‘दुश्मनी पर जीत है सम्वत्सरी,

प्रेम का संगीत है सम्वत्सरी।

पिघल जाए संगदिल भी जिसे सुनकर

ऐसा प्यारा गीत है सम्वत्सरी॥’

वो दिन इस धरती पर सबसे उजला दिन होगा, जिस दिन सम्वत्सरी महापर्व का क्षमा का संदेश इस धरती के हर प्राणी की दिल की वीणा पर संगीत बन कर बजेगा व गीत बनकर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी, यहूदी, बौद्ध यानी सभी के होंठों पर सजेगा। तभी ऋषियों का वो सपना साकार होगा जिसे संस्कृत भाषा में कहते हैं - वसुधैव कुटुम्बकम‍्॥

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