करवा चौथ केवल उपवास का पर्व नहीं, बल्कि प्रेम, आस्था और पारिवारिक एकता का प्रतीक है। यह स्त्री की निष्ठा, संयम, श्रद्धा और सामाजिक समरसता का उत्सव है, जो रिश्तों को मजबूती, संस्कृति को जीवंतता और जीवन मूल्यों को स्थायित्व प्रदान करता है।
करवा चौथ परिवार और समाज में संतुलन, अपनेपन और प्रेम की भावना का पर्व है। करवा चौथ का व्रत वास्तव में पति-पत्नी तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि यह सास-बहू, ननद-भाभी और पड़ोसनों तक में विस्तारित होता है। जब कभी महिलाएं आपस में बैठकर कथा सुनती हैं, गीत गाती हैं और अपने करवे बदलती हैं, तब इस पर्व की सामूहिकता और समरसता को गहराई से महसूस किया जाता है। इसे सुहाग पर्व इसलिए कहते हैं, क्योंकि यह पर्व खास तौर पर विवाहित महिलाओं के लिए होता है, वे अपने पति की लंबी उम्र, अच्छे स्वास्थ्य और दांपत्य जीवन की स्थिरता की कामना के तहत यह पर्व मनाती हैं। सुहागिन स्त्रियां इस दिन सोलह शृंगार करती हैं और अपनी निष्ठा को चंद्र तथा भगवान शिव व पार्वती के सामने व्यक्त करती हैं। कुल मिलाकर करवा चौथ एक ऐसा पर्व है जो पति-पत्नी के निजी रिश्तों के बीच प्रेम की डोर बांधता है। साथ ही इससे सामाजिक रिश्ते भी मसलन सास-बहू के, पड़ोसिनों और सहेलियों के बीच मजबूत होते हैं। इसलिए इसे सुहाग और समरसता का पर्व कहते हैं।
सामाजिक विस्तार और सामूहिकता
करवा चौथ का सांस्कृतिक महत्व केवल धार्मिक सीमाओं तक सीमित नहीं है, यह पर्व भारतीय समाज की उस धरोहर को सामने लाता है, जिसमें पारिवारिक बंधन, स्त्री की शक्ति, निष्ठा, संयम और सामाजिक समरसता का विहंगम तालमेल दिखता है। बदलते युग में इसके रूप-स्वरूप में भले आधुनिकता की छाप पड़ गई हो, लेकिन इसका मूल संदेश अब भी वही है—प्रेम, आस्था और रिश्तों की दृढ़ता। यही कारण है कि करवा चौथ को आज भी भारतीय संस्कृति का सबसे जीवंत और प्रासंगिक पर्व माना जाता है, जैसा यह सदियों से था। करवा चौथ वास्तव में केवल धार्मिक आस्था के नाम पर किया गया उपवास भर नहीं है, बल्कि यह परिवार की एकता, मूल्यों की पुनर्स्थापना की वकालत करने वाला विशेष दिन है। इससे परिवार के भावनात्मक रिश्ते तो मजबूत होते ही हैं, सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता भी बढ़ती है। इस दिन महिलाएं आपस में एक साथ बैठकर कथा सुनती हैं, गीत गाती हैं, सामूहिक रूप से पूजा करती हैं, तो उनमें एक खासतौर का बहनापा विकसित होता है, जो उनके आपसी रिश्तों को मजबूत करता है। यह पर्व भारत की नवविवाहित बहुओं को विशेष महत्व प्रदान करता है, क्योंकि इससे वे नए परिवार और समाज में घुलने-मिलने का अवसर पाती हैं।
सुहाग पर्व के रूप में मान्यता
करवा चौथ का अपना एक धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व भी है। यह पर्व नारी की आस्था और संयम से जुड़ा है, इसलिए इस दिन महिलाएं सूर्योदय से लेकर चंद्रोदय तक निर्जल उपवास रखती हैं। यह व्रत केवल शारीरिक संयम का अभ्यास ही नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक साधना का रूप भी है। उपवास आत्म-नियंत्रण और धैर्य का प्रतीक है। चंद्रमा को अर्घ्य देना शांति, सौंदर्य और स्थिरता का आह्वान करता है। पारिवारिक जीवन में वैवाहिक निष्ठा और परस्पर विश्वास को इससे मजबूती मिलती है। धार्मिक दृष्टि से भी, क्योंकि चंद्रमा को जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक माना जाता है, अतः उसे जल अर्पित करना और व्रत पूरा करना पति-पत्नी के संबंधों में संतुलन और सौहार्द का संदेश देता है।
आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व
भारत की विविध सांस्कृतिक परंपराओं में करवा चौथ का विशेष स्थान है। यह पर्व मुख्य रूप से उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली जैसे राज्यों में बड़ी लोकप्रियता से मनाया जाता है। आज के टीवी और सोशल मीडिया के युग में, भारतवासी दुनिया के हर कोने में बसे होने के कारण, करवा चौथ अमेरिका, कनाडा, लंदन, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देशों में भी भारतीय समुदायों के बीच धूमधाम से मनाया जाता है। इसके सामाजिक महत्व के कारण विदेशी लोग भी इस पर्व में रुचि लेने लगे हैं।
ऋतु परिवर्तन का उल्लास
करवा चौथ दो शब्दों से मिलकर बना है। करवा यानी मिट्टी का घड़ा और चौथ यानी चंद्रमा की अवस्था का चौथा दिन। आदिकाल से यह दिन मुख्यतः कृषि फसलों से जुड़ा हुआ रहा है। कार्तिक मास की शुरुआत के समय खरीफ की फसल के पकने का समय और नई ऋतु के आगमन पर हर्ष उल्लास प्रकट करने का अवसर होता है। इसलिए यह पर्व कृषि जीवन की खुशियों के विशेष पल को भी अपने में पिरोता है। करवा चौथ के समय प्राचीनकाल में महिलाएं एक-दूसरे के घर जाकर उन्हें मिट्टी के करवे यानी घड़े भेंट करती थीं, जिससे उनके बीच आपसी सामाजिक संबंध प्रगाढ़ होते थे। फिर धीरे-धीरे यह परंपरा विभिन्न संबंध कथाओं से जुड़ती गई, जिसमें पति की दीर्घायु की कामना का प्रसंग भी शामिल है, और यह भारत की विविध सांस्कृतिक परंपराओं का खूबसूरत हिस्सा बन गया।
लोक कथाएं और प्रतीकात्मकता
आज यह लगभग पूरे भारत में अलग-अलग प्रतीकों, संकेतों और तौर-तरीकों से मनाया जाता है, जिसमें कई तरह की लोककथाएं भी शामिल हैं। एक कथा के अनुसार वीरवती नामक रानी ने यह व्रत रखा था, लेकिन भाइयों के छल के कारण उसने पहले ही उपवास तोड़ दिया, जिससे उसके पति का निधन हो गया। परंतु अपनी दृढ़ निष्ठा और तपस्या से उसने पति को पुनः जीवित कर लिया। इस कथा से स्त्री की अटल श्रद्धा और उसके विश्वास की ताकत झलकती है। माना जाता है कि भारतीय महिलाएं अपने पति की रक्षा के लिए यमराज से भी भिड़ जाती हैं। इसी ताने-बाने का रूप करवा चौथ है। इ.रि.सें.
व्रत पालन का शास्त्रीय विधान
सत्यव्रत बेंजवाल
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी को ‘करवा चौथ’ (करक चतुर्थी) का व्रत सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अटल सुहाग हेतु रखती हैं। यदि दो दिन चंद्रोदयव्यापिनी हो या दोनों ही दिन न हो तो ‘मातृविद्धा प्रशस्यति’ के अनुसार पूर्वविद्धा तिथि लेने की अनुमति है। इस व्रत में शिव-शिवा, स्वामी कार्तिक आदि देवी-देवता, इंद्राणी व रात्रि में चंद्रमा का पूजन-अर्घ्य एवं नैवेद्य अर्पण करने का विधान है।
व्रत में शिव-पार्वती की पूजा, वीरवार की व्रतकथा तथा रात्रिकाल में चंद्रोदय के समय चंद्रदेव को अर्घ्य अर्पण करने की परंपरा है। इस व्रत की तिथि का निर्णायक ‘श्री गणेश चतुर्थी व्रत’ के अनुसार किया जाता है। शास्त्रानुसार यदि किसी वर्ष तृतीयायुक्त चतुर्थी को चंद्रोदय नहीं हो और दूसरे दिन भी चतुर्थी में चंद्रोदय न हो तो उदयव्यापिनी चतुर्थी व्रत में ग्रहण करनी चाहिए। यदि दोनों दिन चतुर्थी तिथि व्यापिनी हो तथा पहले दिन तृतीया युक्त चतुर्थी में चंद्रोदय हो, तो व्रत उसी दिन करना उचित है। किंतु यदि चंद्रोदय दोनों ही दिनों की चतुर्थी में न हो, तो व्रत का पालन दूसरे दिन करना ही शास्त्रीय विधान है।
9 अक्तूबर, गुरुवार को तृतीया तिथि रात्रि 10:55 तक व्याप्त रहेगी तथा चंद्रोदय इस दिन चंद्रोदय संपूर्ण भारत में तृतीया तिथिकाल के दौरान, सायं 7:05 से 8:00 बजे तक हो जाएगा। जबकि 10 अक्तूबर, शुक्रवार को चतुर्थी तिथि रात्रि 7:39 तक रहेगी। इस दिन (पूर्वोत्तर भारत को छोड़कर) पूरे भारत में चंद्रोदय चतुर्थी तिथि समाप्त होने के बाद ही होगा।
अत: दोनों ही दिन चतुर्थी तिथि चंद्रोदय को स्पर्श नहीं कर रही है, यानी चंद्रोदय के समय चतुर्थी तिथि का अभाव रहेगा। ऐसी स्थिति में शास्त्रीय निर्णयानुसार ‘करवा चौथ’ व्रत 10 अक्तूबर, शुक्रवार को करना उचित और विधानसम्मत है।
करक चतुर्थी (करवा चौथ) की समाप्ति 10 अक्तूबर को सायं 7:39 बजे होगी। 10 अक्तूबर को चंडीगढ़ में चंद्रोदय सायं 8:10 बजे होगा।