एक बार श्रीकृष्ण अर्जुन को साथ लेकर घूम रहे थे। मार्ग में उन्हें एक निर्धन ब्राह्मण मिला जो सूखी घास खा रहा था, पर उसकी कमर में तलवार लटक रही थी। अर्जुन ने कारण पूछा तो ब्राह्मण ने कहा कि वह अपने कुछ ‘शत्रुओं’ को दंड देना चाहता है। जब अर्जुन ने पूछा कि वे कौन हैं, तो ब्राह्मण ने कहा —पहला नारद, जो निरंतर भजन करके प्रभु को विश्राम नहीं लेने देते; दूसरी द्रौपदी, जिसने भगवान को भोजन बीच में छोड़कर बुला लिया; उन्हें पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। तीसरी शबरी, जिसने उन्हें जूठे फल खिलाए; चौथा प्रह्लाद, जिसने उन्हें कष्ट सहने पर विवश किया और पांचवां स्वयं अर्जुन, जिसने भगवान को अपना सारथी बना दिया। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को। यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए। यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।
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