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अहंकार के वशीभूत होने से  मधु-कैटभ का अंत

नाथूसिंह महरा मधु-कैटभ वध की कथा हमें प्रमुखतः श्रीमद्देवीभागवत महापुराण तथा श्रीमद् मार्कण्डेय महापुराण में उपलब्ध है। श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में यह प्रसंग विस्तृत रूप से प्रथम स्कंध के नौवें अध्याय में तथा श्रीमद् मार्कण्डेय महापुराण में देवी माहात्म्य कथा के...
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नाथूसिंह महरा

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मधु-कैटभ वध की कथा हमें प्रमुखतः श्रीमद्देवीभागवत महापुराण तथा श्रीमद् मार्कण्डेय महापुराण में उपलब्ध है। श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में यह प्रसंग विस्तृत रूप से प्रथम स्कंध के नौवें अध्याय में तथा श्रीमद् मार्कण्डेय महापुराण में देवी माहात्म्य कथा के अंतर्गत विश्व विख्यात आख्यान-- श्रीदुर्गासप्तशती के रूप में वर्णित किया गया है।

यह कथा संक्षिप्त रूप से इस प्रकार है कि जब भगवान‌् विष्णु महार्णव में निद्रामग्न थे, तो उनके कानों के मैल से दो महा भयंकर असुर प्रकट हुए। उन्हें मधु और कैटभ नाम से जाना गया। अब वे दोनों ही असमंजस में थे कि वे कौन हैं, कहां से आए हैं और उनके आने का प्रयोजन क्या है? तब उन्होंने अनुमान किया कि कोई महान‌् शक्ति है जिसने हमें प्रकट किया है। तब वे उस महान शक्ति (जगदंबा) के दर्शन और अपने प्रश्नों के निवारण के लिए तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भुवनेश्वरी जगदंबा ने उन्हें वरदान मांगने के लिए कहा। तब उन दोनों ने उनसे इच्छा-मृत्यु का वरदान मांगा और कहा कि जब तक वे स्वयं न चाहें, तब तक उनकी मृत्यु न हो। देवी ने ‘तथास्तु’ कहकर उन्हें उनका इच्छित वरदान प्रदान किया।

वरदान पाकर वे दोनों बल के मद में उन्मत्त होकर युद्ध करने के लिए किसी प्रतिद्वंद्वी को ढूंढ़ने निकल पड़े। वे भगवान‌् विष्णु के नाभिकमल पर चढ़कर ऊपर तक पहुंचे तो वहां उन्हें चतुर्मुखी ब्रह्मा जी दिख पड़े। उन दोनों ने ब्रह्माजी को युद्ध के लिए ललकारना शुरू कर दिया। ब्रह्माजी उनका भयंकर रूप देखकर विचलित हो गए और भयमुक्ति के लिए भगवान‌् विष्णु की शरण में गए। परंतु भगवान विष्णु निद्रालीन थे और ब्रह्मा जी के पुकारने पर भी उनकी निद्रा नहीं खुली।

कुछ देर सोच-विचार करने के बाद ब्रह्मा जी भगवान विष्णु को निद्रा से जगाने के लिए उनकी योगमाया निद्रादेवी की स्तुति करने लगे। इस स्तुति को श्रीदुर्गाचरितावली के प्रथम अध्याय (छंद 70 से 87) में उद्धृत किया गया है, जो रात्रि सूक्त के नाम से विख्यात है। कहा गया है कि मन-चित्त लगाकर भावाभिभूत होकर रात्रि सूक्त का प्रतिदिन पाठ करने से उपासक को शीघ्र ही अभीष्ट की प्राप्ति हो जाती है।

इस प्रकार ब्रह्मा जी की स्तुति से प्रसन्न होकर योगमाया निद्रादेवी भगवान‌् विष्णु के शरीर के सभी अंगों से धीरे-धीरे निकल गईं और भगवान‌् विष्णु निद्रा से जाग गए। तब भगवान‌् विष्णु ने भयभीत ब्रह्माजी को और मधु-कैटभ नामक दो भयंकर असुरों को देखा। उन्होंने उन दैत्यों को स्वयं से युद्ध करने के लिए ललकारा।

वे दोनों दैत्य बारी-बारी से भगवान‌् विष्णु से युद्ध करने लगे। यह युद्ध दीर्घकाल तक चला। भगवान‌् विष्णु आश्चर्यचकित थे कि ये दोनों असुर उनसे परास्त क्यों नहीं हो रहे? तब उन्होंने उन असुरों से कहा कि वे तो बारी-बारी से युद्ध कर रहे हैं और वे अकेले ही उनसे युद्ध कर रहे हैं। इसलिए वे थोड़ा आराम करेंगे। तब भगवान‌् विष्णु ने जगदंबा का ध्यान किया और जाना कि उन्हें भगवती जगदंबा द्वारा इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया गया है।

उन्होंने देवी से प्रार्थना की कि आप ही ने उन्हें वरदान दिया है और आप ही उनमें ऐसी बुद्धि भरें कि वे अहंकार में भरकर कोई भूल कर बैठें और उनका वध सुनिश्चित हो सके। तब भगवती जगदंबा की प्रेरणा से भगवान‌् विष्णु ने उन दोनों असुरों से कहा कि वे उनके पराक्रम से अत्यंत प्रसन्न हैं और वे उन्हें वरदान देने के इच्छुक हैं, वे जो चाहे, उनसे मांग सकते हैं। लेकिन उन असुरों ने अहंकार के वशीभूत होकर कहा कि हम मांगने वालों में नहीं हैं, तुम चाहो तो हमसे ही कोई वरदान प्राप्त कर लो, हम तुम्हें दे देंगे।

भगवान‌् विष्णु ने उनसे कहा कि तब तुम दोनों मेरे हाथों मारे जाओ। इससे अच्छा वरदान मेरे लिए और क्या हो सकता है। अब तो असुरों को अपने वरदान देने पर पश्चाताप होने लगा कि यह कैसा वरदान दे बैठे। इसी बीच उन्होंने देखा कि जहां वे युद्ध कर रहे हैं वहां चारों ओर जल ही जल है। तब उन्होंने भगवान‌् विष्णु को उनके वरदान की याद दिलाते हुए कहा कि वे भी वरदान में यह चाहते हैं कि उन्हें किसी ऐसे स्थान पर मारा जाए जहां जल का नामोनिशान न हो। तब भगवान‌् विष्णु ने अपनी जंघा का आकार इतना बढ़ा लिया कि जल कहीं भी नहीं दिखाई दिया और भगवान‌् विष्णु ने उन दोनों असुरों के सिर अपनी जंघा में रखकर सुदर्शन चक्र से काट दिए तथा ब्रह्मा जी और संपूर्ण जगत को उन असुरों के आतंक से मुक्त कर दिया।

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