द्वारका में श्रीकृष्ण सिंहासन पर रानी सत्यभामा के साथ विराजमान थे। बातों-बातों में सत्यभामा ने पूछा, ‘प्रभु, क्या त्रेता युग में सीता मुझसे भी अधिक सुंदर थीं?’ श्रीकृष्ण समझ गए कि उन्हें रूप का अहंकार हो गया है। तभी गरुड़ ने अपनी गति पर गर्व किया और सुदर्शन चक्र ने अपनी शक्ति पर। भगवान मुस्कुराए और समझ गए तथा तीनों का अहंकार दूर करने की योजना बनाई। उन्होंने गरुड़ को हनुमान को द्वारका बुलाने भेजा, स्वयं राम का रूप धारण किया और सत्यभामा को सीता का रूप लेने को कहा। सुदर्शन चक्र को द्वार पर पहरा देने का आदेश दिया। गरुड़ जी, हनुमान के पास गए और उन्हें द्वारका चलने को कहा। हनुमान ने कहा, ‘आप चलिए, मैं आता हूं।’ गरुड़ जी ने सोचा कि पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब द्वारका पहुंचेगा। जब गरुड़ द्वारका पहुंचे तो देखा कि हनुमान उनसे पहले ही भगवान के चरणों में विराजमान थे। गरुड़ जी लज्जित हो उठे। भगवान ने पूछा, ‘तुम बिना आज्ञा के भीतर कैसे आए?’ हनुमान ने सुदर्शन चक्र को अपने मुंह से निकालकर कहा, ‘इन्होंने रोकने की कोशिश की, इसलिए इन्हें साथ ले आया।’ फिर हनुमान ने सत्यभामा की ओर देखकर पूछा, ‘प्रभु, आज सीता माता के स्थान पर सिंहासन पर आपके साथ यह दासी क्यों बैठी हैं?’ यह सुनकर सत्यभामा का रूप-अहंकार चूर-चूर हो गया। गरुड़ का वेग-अहंकार और सुदर्शन का शक्ति-अहंकार भी पल में चूर हो गए। वे तीनों प्रभु चरणों में झुककर कृतज्ञता से भर उठे।
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