महाराज युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में देश-विदेश से अनेक संत-महात्मा, ऋषि-मुनि, विद्वान, और विभिन्न राज्यों के राजा उपस्थित थे। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को एक अत्यंत मूल्यवान उपहार दिया और कहा, ‘राजन, इस सभा में जो आपको सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति प्रतीत हो, उन्हें यह उपहार अपने हाथों से भेंट कर दीजिए।’ युधिष्ठिर ने सभा में उपस्थित सभी विभूतियों को ध्यानपूर्वक देखा और बोले, ‘प्रभु, मुझे यहां उपस्थित सभी महानुभाव धर्मनिष्ठ, गुणवान और नीतिवान प्रतीत होते हैं। कोई भी एक व्यक्ति ऐसा नहीं है जो दूसरों से कम या अधिक हो। अतः मैं इस उपहार को वापस करता हूं, क्योंकि मैं किसी एक को चुन नहीं सकता।’ श्रीकृष्ण मुस्कुराए और फिर दुर्योधन को बुलाकर वही उपहार देते हुए कहा, ‘दुर्योधन, तुम भी इस सभा में से जिसे सबसे श्रेष्ठ समझो, उसे यह उपहार भेंट कर दो।’ कुछ समय बाद दुर्योधन लौटे और बोले, ‘प्रभु, मैंने सभी को देखा, पर कोई भी ऐसा नहीं मिला जिसमें कोई अवगुण न हो। किसी में क्रोध है, किसी में लोभ, किसी में अहंकार तो किसी में मोह। मुझे कोई भी योग्य व्यक्ति नहीं मिला जो इस उपहार के योग्य हो।’ श्रीकृष्ण मुस्कराकर बोले, ‘यही तो दृष्टिकोण का अंतर है। युधिष्ठिर को सभी में अच्छाई दिखाई दी, इसलिए वे किसी को कमतर नहीं मान सके। जबकि तुम्हें सभी में अवगुण ही नज़र आए, इसलिए तुम किसी को श्रेष्ठ नहीं मान सके।’
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