चेतनादित्य आलोक
हिंदुओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण चार धामों में से एक ओडिशा के श्रीजगन्नाथ पुरी धाम के प्रति लोगों की आस्था सदियों पुरानी है। श्रीजगन्नाथ पुरी भगवान श्रीविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के ही एक विशिष्ट रूप श्रीजगन्नाथ भगवान की मुख्य लीला-भूमि है। इस धर्म नगरी पुरी क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाली श्रीजगन्नाथ रथयात्रा को काफी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार, रथयात्रा का शुभारंभ आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होता है और द्वादशी या त्रयोदशी तिथि तक यह रथयात्रा जारी रहती है।
युगल मूर्ति के प्रतीक
भगवान श्रीजगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महायान का शून्य और अद्वैत का ब्रह्म समाहित है। उनके अनेक नाम है, वे पतित-पावन हैं। सनातन धर्म की वैष्णव परंपरा की मान्यताओं के अनुसार श्रीराधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्रीजगन्नाथ जी हैं।
रथयात्रा का महत्व
भगवान श्रीजगन्नाथ के दर्शन मात्र से भक्तों के सारे दुःख और संकट दूर हो जाते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और जीवन बेहतर बनता है। स्कंद पुराण के अनुसार, जो व्यक्ति रथयात्रा में भगवान के नाम का कीर्तन करते हुए गुंडीचा नगर तक जाता है, वह जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। जो दर्शन कर मार्ग पर लोटते हैं, वे भगवान विष्णु के धाम को प्राप्त होते हैं। गुंडिचा मंडप में भगवान और उनके भाई-बहनों का दर्शन करने वालों को मोक्ष मिलता है।
भगवान का एकांतवास
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान श्रीजगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी को 108 घड़ों के जल से ‘सहस्त्रधारा’ स्नान कराया जाता है, जिसके बाद वे तीनों बीमार हो जाते हैं। इसलिए अगले 14 दिनों तक एकांतवास में रखकर उनका सेवोपचार किया जाता है। साथ ही, मंदिर के कपाट बंद रखे जाते हैं। इस वर्ष 11 जून यानी ज्येष्ठ पूर्णिमा से भगवान के आरोग्य प्राप्ति हेतु भक्तों द्वारा सेवोपचार जारी है, जो 25 जून तक चलेगा। स्वस्थ होकर भगवान 26 जून को पुनः अपने गर्भगृह में पधारेंगे और 27 जून, शुक्रवार को लाखों भक्त भगवान समेत तीनों भाई-बहन के रथों को मोटे-मोटे रस्सों से बांधकर खींचते हुए ‘गुंडीचा मंदिर’ ले जाएंगे, जो धर्म नगरी पुरी के श्रीजगन्नाथ मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित है।
पंच तत्वों से निर्मित रथ
श्रीजगन्नाथ रथयात्रा में प्रयुक्त तीन रथों का निर्माण पंचतत्व — नीम की लकड़ी, धातु, रंग, वस्त्र और सजावटी सामग्री — से किया जाता है। बलभद्र जी का हरे-लाल रंग का ‘तालध्वज’ रथ 763 लकड़ी टुकड़ों से बनता है, जिसके रक्षक वासुदेव और सारथी मताली हैं। सुभद्रा जी का ‘पद्मध्वज’ (दर्पदलन) रथ लाल-काले रंग का होता है, 593 टुकड़ों से बना, जिसकी रक्षक जयदुर्गा और सारथी अर्जुन हैं। जगन्नाथ जी का ‘गरुड़ध्वज’ (कपिलध्वज) पीले-लाल रंग का रथ 832 टुकड़ों से बनता है, जिसकी रक्षा गरुड़ करते हैं और जिस पर हनुमान व नृसिंह के चिह्न अंकित होते हैं। इन रथों की ऊंचाई क्रमशः 13.5 मीटर (जगन्नाथ), 13.2 मीटर (बलभद्र), और 12.9 मीटर (सुभद्रा) होती है। इनका निर्माण बसंत पंचमी से शुरू होता है और अक्षय तृतीया को आरंभ होता है। निर्माण में न कील लगाई जाती है न कोई नुकीली वस्तु — यह पूरी प्रक्रिया शास्त्रीय विधियों और परंपरा पर आधारित होती है।
अधूरी मूर्तियों का रहस्य
रथयात्रा में शामिल भगवान श्रीजगन्नाथ और उनके भाइयों-बहन की मूर्तियों में हाथ, पैर और पंजे नहीं होते। एक पौराणिक कथा के अनुसार, विश्वकर्मा जी मूर्तियां बना रहे थे और शर्त रखी थी कि निर्माण पूरा होने तक कोई भी अंदर प्रवेश न करे। राजा ने गलती से दरवाजा खोल दिया, जिससे विश्वकर्मा जी मूर्ति निर्माण अधूरा छोड़कर चले गए।
ब्रह्म पदार्थ
ओडिशा के पुरी स्थित श्रीजगन्नाथ मंदिर भगवान श्रीकृष्ण का इकलौता ऐसा मंदिर है, जहां वे बलभद्र और सुभद्रा जी के साथ श्रीजगन्नाथ रूप में विराजमान हैं। मान्यता है कि काष्ठ निर्मित इन मूर्तियों में भगवान का हृदय आज भी धड़कता है। हर 12 वर्षों में मूर्तियां बदली जाती हैं। इस दौरान पुरी क्षेत्र में पूर्ण अंधकार किया जाता है और चयनित पुजारी पुरानी मूर्तियों से ब्रह्म पदार्थ निकालकर नई मूर्तियों में स्थापित करते हैं।