विजय सिंगल
मानवीय कष्टों के विभिन्न कारणों में से क्रोध एक प्रमुख कारण है। जब कोई अपना आपा खो देता है, तो वह अपना विवेक भी खो देता है; और ऐसे काम कर बैठता है, जिसके कारण उसे बाद में पछताना पड़ता है। ऐसा अविवेकपूर्ण व्यवहार न केवल संबंधित व्यक्ति के लिए बल्कि उसके आसपास के अन्य लोगों के लिए भी समस्याएं पैदा कर देता है। भगवद्गीता में क्रोध के वशीभूत रहने वालों को आसुरी प्रकृति का, और क्रोध से मुक्त लोगों को दैवीय प्रकृति का कहा गया है। वास्तव में श्रीकृष्ण ने क्रोध को नरक के तीन द्वारों में से एक घोषित किया है। ‘नरक के तीन द्वार हैं— काम, क्रोध तथा लोभ। इन तीनों को त्याग देना चाहिए, क्योंकि इनसे जीव का पतन होता है।’
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ अपने संवाद में क्रोध की कार्यशैली का विश्लेषण किया है। यह पूछे जाने पर कि ऐसी कौन-सी शक्ति है जो व्यक्ति को, उसकी अपनी इच्छा के विरुद्ध भी, मानो बलपूर्वक, पाप करने के लिए प्रेरित करती है; श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि समस्या का मूल कारण है वासना, जो अतृप्त रहने पर क्रोध के रूप में प्रकट होती है। यह मानव जाति की सर्वभक्षी और सबसे बड़ी शत्रु है। वासना को मनुष्य का सतत शत्रु कहा गया है, क्योंकि अग्नि की भांति इसकी भूख कभी भी पूर्णतः तृप्त नहीं होती।
गीता में क्रोध के बारे में कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु के संपर्क में आता है तो उसके लिए उसके मन में एक लगाव (राग या द्वेष) विकसित हो जाता है। वह उस वस्तु को पसंद या नापसंद करने लगता है। ऐसी पसंद या नापसंद से उस वस्तु को पाने या उससे छुटकारा पाने की इच्छा उत्पन्न होती है। इच्छा की पूर्ति न होने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करने से उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना की पूर्ति न होने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से भ्रम पैदा होता है, जिससे स्मृति की हानि होती है अर्थात् व्यक्ति भूल जाता है कि उचित क्या है और अनुचित क्या है। स्मृति की हानि के फलस्वरूप बुद्धि में गिरावट आती है। बुद्धि के नाश के साथ मनुष्य का नाश होता है।
क्रोध से मुक्ति को आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यक शर्तों में से एक महत्वपूर्ण शर्त घोषित किया गया है। केवल उसी व्यक्ति की बुद्धि स्थिर होती है जोकि क्रोध से मुक्त है। श्रीकृष्ण ने आगे कहा है कि केवल वही व्यक्ति इस संसार में सुखी रह सकता है जो काम और क्रोध के आवेशों को सहन करने में समर्थ है। भगवद्गीता में केवल लक्षणों को रोकने के बजाय, इसमें क्रोध के मूल कारण से निपटने पर ज़ोर दिया गया है।
जब इन्द्रियां भौतिक दुनिया से संबंधित विभिन्न विषयों (जैसे अलग-अलग लोग, धन या सत्ता की प्रतिष्ठा इत्यादि) के संपर्क में आती हैं, तो मनुष्य में उनको प्राप्त करने की आकांक्षा प्रकट होती है। प्रत्येक इन्द्रिय अपने से संबंधित विषयों के प्रति राग और द्वेष का भाव रखने के लिए प्रेरित करती है। श्रीकृष्ण ने यह समझाया है कि मनुष्य को पसंद और नापसंद का दास नहीं बनना चाहिए, क्योंकि यह दोनों ही आध्यात्मिक विकास में बाधा डालते हैं। दूसरे शब्दों में, अपनी पसंद और नापसंद को संयत करके व्यक्ति अपनी इच्छाओं, क्रोध और भय आदि से मुक्त हो सकता है।
श्रीकृष्ण ने बार-बार चित्त की समता के महत्व पर प्रकाश डाला है। जो कोई मनुष्य सफलता-असफलता, हानि-लाभ आदि में समरूप होकर रहता है, क्रोध उस पर कभी भी हावी नहीं हो सकता। ऐसा समभाव वाला व्यक्ति स्वार्थपूर्ण वासनाओं, अनुचित अपेक्षाओं तथा क्रोध के अकस्मात् विस्फोट से उत्पन्न परेशानियों में नहीं फंसता।