पिछली सदी की बात है। अमेरिका में अपने अनुयायियों के साथ रात्रिभोज के दौरान एक मेज पर परमहंस योगानंद अपनी शिष्या दया माता के साथ बैठे थे। उनसे कुछ ही दूरी पर बैठे एक व्यक्ति ने परमहंस जी पर कोई अप्रिय टिप्पणी की, जिसे परमहंस जी और दया मां ने भी सुना। परमहंस जी शांत रहे और धीरे से मुस्कुरा भर दिए। निस्संदेह, दया मां को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने अपने गुरु परमहंस जी से पूछा, ‘आप इस अभद्रता को कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?’ परमहंस जी मुस्कराये और उन्होंने मेज पर रखे फूलदान में से एक गुलाब की कुछ पंखुडियां उठायी। उन्होंने पखुंडियों को अपने हाथ पर मसला और सूंघने के लिए हाथ मां की ओर बढ़ाया। उन्होंने कहा, ‘देखो तो इस गुलाब को, मसलने पर भी इसने अपनी सुगंध को नहीं छोड़ा। तो फिर विषम परिस्थितियों व प्रतिक्रिया स्वरूप आवेश में हमें अपना मूल स्वभाव क्यों छोड़ देना चाहिए? किसी व्यक्ति की गलती को उसके दुराग्रह व अज्ञानता के संदर्भ में देखना चाहिए। हम प्रत्येक व्यक्ति में भगवान के प्रेम को महसूस करें। हर किसी में उसकी उपस्थिति देखें। चेतना के मंदिर में उसकी निरंतर उपस्थिति महसूस करें। यही सही मायनों में जीवन की राह है।’
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा