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नि:स्वार्थ सेवा का संकल्प

एकदा
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जर्मनी में ओवर लिन नामक दानवीर का बड़ा नाम था। शहर में न जाने कितने ही स्कूल, चर्च, सराय आदि उसने बनवाए थे। किसी को भी, किसी प्रकार की आवश्यकता होती तो वह सबसे पहले ओवर के पास ही आता। एक बार ओवर को अपने शहर से कहीं दूर जाना पड़ा। रास्ते में अचानक बर्फीला तूफान आया और ओवर रास्ता भटक गया। उसकी गाड़ी भी बर्फ के दलदल में फंस गई। ओवर किसी मदद की उम्मीद ही छोड़ बैठा था। संयोग से गाड़ी की जलती बत्तियां देखकर एक गरीब मज़दूर विली वहां आ पहुंचा और मदद की पेशकश की। ओवर के हां कहने पर वह अपने कुछ और साथियों को भी वहां बुला लाया। गाड़ी दलदल से बाहर निकाल दी। इसके बाद वह ओवर को अपने घर ले गया और उसे गर्म कॉफी और नाश्ता दिया। ओवर ने अभिभूत होकर अपनी जेब का सारा पैसा निकालकर विली के हाथ में रख दिया। मगर विली ने वह सारा पैसा वापस ओवर को लौटा दिया। इस पर ओवर ने उसे सीने से लगाते हुए कहा, ‘भाई, कृपया अपना नाम तो बता दो।’ यह सुनकर विली बोला, ‘क्या आप मुझे सामने दिख रहे चर्च के परोपकारी निर्माता का नाम बता सकते हैं।’ ‘नहीं भाई, वह तो गुमनाम है।’ ओवर ने जवाब दिया। विली ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘बस, मुझे भी इसी तरह गुमनाम रहने दीजिए।’

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