एक बार महान रूसी लेखक और दार्शनिक लियो टॉलस्टॉय कुछ सप्ताह के लिए एक कस्बे में निवास कर रहे थे। विश्वभर में अपनी ख्याति के बावजूद वे अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन जीते थे। वे स्वयं पैदल जाकर ब्रेड खरीदते, अपने कपड़े खुद धोते और उन्हें पास के एक विशाल वृक्ष की शाखा पर सूखने के लिए डालते। उसी कस्बे में कई बाग-बगीचों के मालिक और धनवान सेठ भी रहते थे। एक सुबह टॉलस्टॉय अपनी आदत के अनुसार सैर पर निकले। बहुत से लोग जो उन्हें पहचानते थे, उन्हें देखकर मुस्कुरा रहे थे। कुछ जिज्ञासु लोग सलाह लेने के लिए भी उनके पास आ गए। टॉलस्टॉय हर किसी से एक ही बात दोहराते रहे, ‘अपनी भाषा और बोली को सुधारो, सारा जीवन सुधर जाएगा।’ उसी दौरान एक धनवान व्यक्ति का अचानक पैर फिसल गया। इस पर उसने अपने नौकर को कुछ ही क्षणों में दस अपशब्द कह डाले। उसकी कड़वी और अपमानजनक भाषा सुनकर सभी का मन खिन्न हो गया। टॉलस्टॉय ने शांत भाव से गर्दन हिलाई और कहा—‘मैं यही तो समझाता हूं। बोली ही सच्चा परिधान है। मुंह से निकला हर शब्द हमारे भीतर की सच्चाई को प्रकट कर देता है।’
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