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देवी दुर्गा की लोकधर्मी छवि का उत्सव

सांझी माता पूजा

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हरियाणा के गांवों में सांझी पूजा सदियों से चली आ रही है। सांझी शब्द सांझ से बना है। सांझ का अर्थ सायं अर्थात गोधूली का समय। माता दुर्गा की पूजा सांझ के समय की जाती है, इसलिए इसे सांझी कहा गया है। आज भी गांवों में लोग दीवार पर सांझी माई की मूर्ति उकेरते हैं। गाय के गोबर, मिट्टी की टिकड़ियों को रंगीन करके दीवारों पर चिपकाते हैं और इसे माता दुर्गा का रूप देते हैं।

भारत भूमि को देवभूमि कहा गया है। यहां समय-समय पर देवी आत्माओं का प्रकटीकरण होता रहा है। उन्होंने अनेक मर्यादाओं की स्थापना की, इन्हीं मर्यादाओं के समुचित पालन की नियमावली को ही त्योहार की संज्ञा दी है। ऐसे ही शृंखलाबद्ध रूप में माता के नौ रूपों को नौ दिनों तक मनाना ही नवरात्र कहा गया है। नवरात्रों के दौरान हरियाणा में सांझी माता की पूजा की जाती रही है, जिसका बृहद रूप ही माता दुर्गा पूजा है।

मान्यता है कि 16वीं शताब्दी में अविभाजित भारत का बंगाल तथा वर्तमान बांग्लादेश के ताहिरपुर के राजा कंसनारायण ने अश्वमेध यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की। परंतु कलियुग होने के कारण पुजारियों ने उन्हें अश्वमेध यज्ञ के स्थान पर माता दुर्गा की पूजा करने की सलाह दी। इसके पश्चात बंगाल के बड़े जमींदारों द्वारा दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई।

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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महिषासुर नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसने देवताओं को बंदी बनाया और उन पर अत्याचार करने लगा। देवताओं ने उससे छुटकारा पाने के लिए दुर्गा माता से प्रार्थना की। देवताओं की प्रार्थना पर माता दुर्गा ने ‘अष्टभुज’ रूप धारण कर शेर पर सवार होकर महिषासुर का अंत कर दिया। उसी समय से लोग इन दिनों को दुर्गा दिवसों अर्थात नवरात्रों के रूप में मनाते हैं।

हरियाणा राज्य में माता दुर्गा पूजा की परंपरा अति प्राचीन है, जिसे सांझी माता कहा जाता रहा है। माना जाता है कि 15वीं शताब्दी में वैष्णव मंदिरों में सांझी की पूजा आरम्भ की गई थी। हरियाणा के गांवों में सांझी पूजा सदियों से चली आ रही है। सांझी शब्द सांझ से बना है। सांझ का अर्थ सायं अर्थात गोधूली का समय। माता दुर्गा की पूजा सांझ के समय की जाती है, इसलिए इसे सांझी कहा गया है। आज भी गांवों में लोग दीवार पर सांझी माई की मूर्ति उकेरते हैं। गाय के गोबर, मिट्टी की टिकड़ियों को रंगीन करके दीवारों पर चिपकाते हैं और इसे माता दुर्गा का रूप देते हैं। इसके अगल-बगल में चांद और सूरज बनाए जाते हैं। उसके मुंह पर कपड़ा लगाया जाता और सांझ के समय सांझी की आरती की जाती है। कुंवारी लड़कियां अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए नवरात्रों में सांझी की आरती करती हैं।

घर की लड़कियां तथा महिलाएं लोकगीतों से मां की आराधना करती हैं तथा उनसे आशीर्वाद मांगती हैं। माता की आरती के लिए घी का दीपक जलाया जाता है और माता को हलवा या अन्य मिष्ठ पदार्थों का भोग लगाया जाता है। उसके पश्चात नवरात्रों के व्रती अपना उपवास खोलने के लिए भोजन करते हैं। नवरात्रों में भोजन का भी विशेष महत्व है। सांझी माई के नौ दिनों तक फलाहार किया जाता है। सांझी माता की आरती करने के बाद रात्रि में शामक, आलू का हलवा या साबुदाने की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है।

सांझी माई को नौ दिनों तक पूजा जाता है तथा दशहरे के दिन माई को तालाब या जोहड़ में इस प्रार्थना के साथ विसर्जित किया जाता है कि ‘माई तूं अगले साल फेर आईये और हमारे घरों में खुशियां लाईये’।

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