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विपत्ति में वरदान

एकदा

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महाराज दशरथ संतान-सुख से वंचित थे, जिससे वे अत्यंत दुखी रहते थे। परंतु एक बात उन्हें सदैव आशा देती थी— श्रवण के पिता का श्राप। जब उन्होंने श्रवण को अनजाने में मार दिया था, तब उसके अंधे माता-पिता ने श्राप दिया था— ‘जैसे मैं पुत्र-वियोग में तड़प-तड़प कर मर रहा हूं, वैसे ही तू भी अपने पुत्र के वियोग में तड़पकर मरेगा।’ दशरथ को विश्वास था कि यह श्राप अवश्य फलीभूत होगा और इसका अर्थ है कि उन्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा। इस प्रकार वह श्राप भी उनके लिए संतान-सुख का संदेश बन गया। इसी तरह सुग्रीव के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। जब वह बाली के भय से इधर-उधर भटक रहे थे, तब उन्हें पृथ्वी पर कहीं शरण नहीं मिली। इस संकट में उन्होंने पूरी पृथ्वी का भ्रमण कर डाला। फलस्वरूप उन्हें समस्त भूगोल का अद्भुत ज्ञान हुआ। यही ज्ञान बाद में माता सीता की खोज में अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ। इसलिए कहा गया है— ‘अनुकूलता भोजन है, प्रतिकूलता विटामिन है और चुनौतियां वरदान हैं और जो उनके अनुसार व्यवहार करे वही पुरुषार्थी है।’ यदि आज सुख मिला है तो प्रसन्न रहें, और यदि दुख आए तो उसे भी ईश्वर का वरदान समझें।

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