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आस्था संग पुरातात्विक महत्व भी

लिंगराज मंदिर
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पारुल आनंद

हमारे देश में विश्वास और श्रद्धा की एक समृद्ध परंपरा रही है। इसी मिट्टी में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम का जन्म हुआ। कई पौराणिक कथाएं इसका वर्णन करती हैं। इसी श्रेणी में आता है, लिंगराज मंदिर जो कि आस्था का केंद्र होने के साथ-साथ एक पुरातात्विक महत्व का भी है। यह उड़ीसा प्रांत के भुवनेश्वर में स्थित है। अगर आप शिव और विष्णु दोनों के भक्त हैं, तो यह मंदिर आपके लिए आस्था का केंद्र है।

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यह मंदिर भगवान भुवनेश्वर (शिव) को समर्पित है। इसे ययाति केशवी ने 11वीं शताब्दी में बनवाया था। यद्यपि इसका प्रारंभिक अस्तित्व 12वीं शताब्दी में सामने आया, किंतु इसके कुछ हिस्से 14वीं शताब्दी में पूर्ण हुए। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है।

मान्यता है कि लिट्टी और वसा नामक राक्षसों का वध मां पार्वती ने यहीं किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी तो शिवजी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को यहां बुलाया अपना योगदान देने के लिए। यहीं पर बिंदुसागर सरोवर है जो कि लिंगराज में स्थित है। बताते हैं कि यहां मध्यकाल में 7000 से अधिक मंदिर और पूज्य-स्थल थे, अब सिर्फ 500 ही बचे हैं।

रचना सौंदर्य : यह जगत प्रसिद्ध मंदिर पश्चिम भारत के मंदिरों में नक्काशी और सौंदर्य में अव्वल आता है। लिंगराज का मंदिर अपनी अद्भुत स्थापत्यकला के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर में प्रत्येक शिला पर कारीगरी और मूर्तिकला का अनूठा समागम है। इस मंदिर का शिखर भारत में सबसे विशिष्ट माना जाता है। यह नीचे तो प्राय: सीधा तथा समकोणीय है, पर ऊपर पहुंचकर वक्र होता चला गया है। और शीर्ष पर प्राय: वर्तुल दिखाई देता है। मंदिर के परिसर में भित्तियों पर सुंदर नक्काशी की हुई है। मंदिर के शिखर की ऊंचाई 180 फ़ीट है। गणेश, कार्तिकेय और गौरी के तीन छोटे मंदिर भी बड़े मंदिर से सटे हुए हैं। गौरीमन्दिर में पार्वती की काले पत्थर से बनी प्रतिमा है।

इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा ययाति केशवी ने 11वीं शताब्दी में करवाया था। उसने तब अपनी राजधानी को जाजपुर से भुवनेश्वर स्थानांतरित किया था। प्रतिवर्ष अप्रैल के महीने में यहां रथयात्रा आयोजित होती है। मंदिर के समीप सरोवर बिंदुसागर में हर झरने और नदी का जल शामिल है, जिसे स्नान करने से पाप मोचन होता है।

पूजा-पद्धति के अनुसार सबसे पहले बिंदुसागर सरोवर से मूर्तियों को स्नान कराया जाता है। उसके बाद छत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किये जाते हैं, जिन्हे 9वीं व 10वीं शताब्दी में बनाया गया था। गणेश पूजा के बाद शिवजी के वाहन नंदी की पूजा के बाद लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य द्वार खोला जाता है। वहां की रसोई में 56 भोग बनाये जाते हैं, जिसे मिट्टी के बर्तन में बनाया जाता है। साथ ही बनाने के बाद उन्हें तोड़ दिया जाता है। वहां का वास्तु ऐसा है कि सूर्य या चंद्र की किसी भी किरण भोग में न पड़े।

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