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अटूट आस्था और सांस्कृतिक भव्यता का अनूठा संगम

महाकाल शाही सवारी आज

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शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल भूतभावन भगवान महाकाल की ही इस प्रकार की सवारी निकालने की परम्परा रही हैं। जन विश्वास के अनुसार भगवान महाकाल को समस्त भूमंडल के स्वामी होने के साथ उज्जैन का राजा माना गया है। ऐसी जनास्था है कि सवारी में महाकाल राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण करते हैं। अतः भगवान महाकाल की सवारी निकालने की यह अनूठी परंपरा है।

योगेंद्र माथुर

उज्जैन में श्रावण-भादौ मास में प्रत्येक सोमवार को बाबा महाकाल के विभिन्न स्वरूपों की शानदार सवारी निकाली जाने की परम्परा काफी पुरातन है। उल्लेखनीय है कि शिवजी के बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल भूतभावन भगवान महाकाल की ही इस प्रकार की सवारी निकालने की परम्परा रही है। जन विश्वास के अनुसार भगवान महाकाल को समस्त भूमंडल के स्वामी होने के साथ उज्जैन का राजा माना गया है। ऐसी जनास्था है कि सवारी में महाकाल राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण करते हैं। अतः भगवान महाकाल की सवारी निकालने की यह अनूठी परंपरा है। हालांकि अब कई शिव मंदिरों में इस प्रकार की सवारी निकाली जाने लगी है।

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श्रावण मास शिव आराधना का मास माना गया है और सोमवार का शिव जी से अटूट सम्बन्ध है। सोम अर्थात‍् चंद को शिवजी ने मस्तक पर धारण कर रखा है। ऐसी आस्था है कि चंद्रमौली शिव चंचलता के प्रतीक चंद्र को मस्तक पर धारण करने के कारण मस्ती में रहते हैं। अतः श्रावण के प्रत्येक सोमवार को महाकाल की पूजा का विशेष महत्व माना गया है। इसी महत्व के चलते श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को बाबा महाकाल की सवारी निकाली जाने की परम्परा आरंभ हुई।

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पहले यह सवारी श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को ही निकाली जाती थी लेकिन बाद में सिंधिया शासनकाल में यह सवारी श्रावण शुक्ल पक्ष से भाद्रपद कृष्ण पक्ष तक प्रत्येक सोमवार को निकाली जाने लगी। अब लगभग सन 1967 से यह सवारी श्रावण कृष्ण पक्ष से लेकर भाद्रपद कृष्ण पक्ष तक निकाली जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि दक्षिणी पंचांग विशेष रूप से गुजरात व महाराष्ट्र के पंचांग में माह की समाप्ति अमावस्या को मानी जाती है, जिससे 15 दिन का अंतर आ जाता है।

श्रावण भादौ मास की इन सवारियों में प्रत्येक सवारी में भगवान महाकाल का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। अंतिम मुख्य या महासवारी में रजत पालकी में बाबा महाकाल अपने चंद्रमौलेश्वर स्वरूप में विराजमान होते हैं और बाद में क्रमशः गरुड़जी पर प्रतिष्ठित शिवतांडव प्रतिमा, नंदीगण पर भगवान उमा-महेश, सिंहासन रथ पर होलकर मुखौटा और सप्तधान का मुखौटा शामिल होता है। सवारी के आखिरी में भगवान महाकाल हाथी पर विराजमान मनमहेश स्वरूप में दर्शन देते हैं। श्रावण मास में यदि पांच सोमवार पड़ते हैं तो भादौ मास की दो सवारी मिलाकर सात सवारी हो जाती है। अतः सातवीं सवारी में शामिल कोटेश्वर महादेव का आवरण भी इस महासवारी में शामिल किया जाता है।

भाद्रपद कृष्ण पक्ष के दूसरे सोमवार को निकलने वाली बाबा महाकाल की यह मुख्य या महासवारी सजधज व धूमधाम से निकाली जाती है। यह महासवारी उज्जैन में महोत्सव का रूप लेती है। समूचा शहर शिवमय होकर महाकाल महाराज के स्वागत, दर्शन-पूजन व चरण-वंदन के लिए आतुर हो जाता है। सवारी महाकालेश्वर मंदिर से आरंभ होकर शिप्रा तट पर रामघाट पहुंचती है जहां भगवान महाकाल का पूजन-अर्चन और पुण्य सलिला शिप्रा के पावन जल से अभिषेक के पश्चात सवारी नगर के प्रमुख मार्गों का करीब 5 किलोमीटर का फासला तय कर पुनः मंदिर पहुंचती है। यह रास्ता तय करने में सवारी को करीब 6 से 7 घंटे का समय लगता है। सवारी के पूरे मार्ग को आकर्षक पुष्प व विद्युत सज्जा कर सजाया जाता है। सजावट ऐसी कि दुल्हन का शृंगार फीका पड़ जाए, हर त्योहार-पर्व की छटा कमतर नजर आए।

सवारी अपराह्न 4 बजे भगवान महाकाल की चंद्रमौलेश्वर प्रतिमा के अभिषेक व पूजा-अर्चना के बाद आरंभ होती है। सर्वप्रथम पुलिस दल द्वारा महाकाल राजा को बंदूक की सलामी दी जाती है। फिर कड़ाबीन के धमाके उद्घोष करते हैं कि महाकाल महाराज की सवारी नगर भ्रमण पर निकल रही है। इस महासवारी के शाही लवाज में में ढोल-ताशों की धूम, भजन-कीर्तन मंडलियों की लय, शंखध्वनि के साथ डमरूओं के निनाद व करतालों की सुमधुर ताल पर मस्ती में झूमते-कदम थाप करते श्रद्धालुओं और बाबा की बारात के दृश्य को दोहराते नाना प्रकार के चरित्रों से सुसज्जित बहुरूपियों के साथ बैंडों के सुरसाधक अपने सुमधुर भजनों से भक्ति गंगा प्रवाहित करते हुए चलते हैं तो दर्शनार्थियों में धार्मिक भावना का जैसे सैलाब उमड़ने लगता है। हर हर महादेव, भोले शंभू भोलेनाथ, जय महाकाल, जय-जय महाकाल, आ रही है पालकी, बाबा महाकाल की और उज्जैन में आनंद भयो जय महाकाल की जैसे जयघोष से समूचा वातावरण गूंज उठता है।

महाकाल महाराज की इस भव्य सवारी के दर्शन करने के लिए महाकाल मंदिर व शिप्रा नदी की ओर जाने वाले पूरे मार्ग पर सड़कों व गलियों में जैसे जन सैलाब उमड़ता है। हर धर्म, संस्कृति, तहजीब व सामाजिक मान्यताओं को मानने वाले लोग इसमें शामिल होते हैं और यह सवारी एक ‘लोक पर्व’ का रूप लेती दिखाई देती है।

वास्तव में यह जन सैलाब धार्मिक मान्यताओं व परम्परा के प्रति अमिट व अडिग आस्थाओं का महासंगम होता है। ऐसा लगता है मानो पुण्य सलिला शिप्रा की धारा संस्कृति की धारा के रूप में अविरल बह रही है। भारतीय संस्कृति की विराटता के दर्शन महाकाल की इस मुख्य महासवारी में होते हैं।

चित्र लेखक

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