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श्रद्धा की ज्योति से प्रकाशमान आस्थास्थली

पाताल भुवनेश्वर
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उत्तराखंड की सुरम्य पर्वतमालाओं में स्थित पाताल भुवनेश्वर एक रहस्यमयी आस्थास्थली है, जहां तैंतीस कोटि देवी-देवताओं का निवास माना जाता है। यह स्थल आस्था का प्रतीक है।

हिमाच्छादित दिव्य पर्वतमाला में पवित्र नदियां — गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी आदि — का उद्गम स्थल देवभूमि उत्तराखंड, हरी-भरी घाटियां किसे मंत्रमुग्ध नहीं करतीं? यह प्रदेश अपने अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिक स्मृतियों, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धरोहर, तथा विश्व प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थ स्थलों के लिए विख्यात है।

टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां एक कौतूहलपूर्ण, रहस्यमय आध्यात्मिक स्थान ‘पाताल भुवनेश्वर’ की ओर ले जाती हैं, जिसके बारे में मान्यता है कि यहां तैंतीस कोटि देवी-देवता — अर्थात‍् धरती पर विद्यमान लगभग सभी देवी-देवता— निवास करते हैं। यह स्थान प्राकृतिक रूप से निर्मित गुफाओं की शृंखला है, जिसे ‘पाताल’ की संज्ञा दी गई है, और भुवनेश्वर गांव के निकट स्थित होने के कारण यह स्थान ‘पाताल भुवनेश्वर’ के नाम से विख्यात हो गया है।

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एक ओर सरयू नदी और दूसरी ओर रामगंगा नदी के बीच में, पिथौरागढ़ से लगभग 90 कि.मी. की दूरी पर, गंगोलीहाट कस्बे से 14 कि.मी. की दूरी पर पाताल भुवनेश्वर स्थित है। चूना-पत्थर से निर्मित पाताल भुवनेश्वर गुफा समुद्र तल से 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह गुफा प्रवेश द्वार से 160 मीटर लंबी एवं 90 फीट गहरी है। भूगर्भ वैज्ञानिकों का मानना है कि यहां पर पानी के सतत प्रवाह व रिसाव से कैल्शियम कार्बोनेट की चट्टानों पर ऐसी मनमोहक आकृतियां एवं आकार स्वतः ही उभर आए हैं कि शायद कोई मूर्तिकार भी उन्हें ऐसा आकार न दे पाए।

प्राकृतिक रूप से निर्मित इन आकृतियों में विभिन्न देवी-देवताओं के काल्पनिक रूप परिलक्षित होते हैं और धार्मिक आस्था वाले लोगों ने उनके स्वरूप के अनुसार उन्हें नाम दे दिए हैं।

इस गुफा में प्रवेश करने के लिए सौ सीढ़ियों से नीचे उतरना पड़ता है। गुफा का प्रवेश द्वार अत्यंत संकरा है, जहां से एक बार में केवल एक व्यक्ति ही प्रवेश कर सकता है। अंदर प्रवेश करते ही काफी खुला स्थान है, और एक के बाद एक कई गुफाएं दिखाई पड़ती हैं, जो बिजली के प्रकाश में मंद-मंद सी जगमगाती रहती हैं।

सर्वप्रथम सूर्य वंश के राजा ‘ऋतुपर्ण’ ने त्रेता युग में इस गुफा की खोज की थी, जिसका उल्लेख स्कंद पुराण के मानस खंड में मिलता है। बाद में ‘आदि शंकराचार्य’ ने 12वीं सदी में हिमालय की यात्रा के दौरान इस गुफा की पुनः खोज की। तब से यह एक तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध है और यहां नियमित पूजा-अर्चना की जाती है। भुवनेश्वर गांव में रहने वाले ‘भंडारी’ परिवार के लोग पिछले 20 पीढ़ियों से यहां के पुजारी हैं।

गुफा के अंदर की यात्रा बिजली के प्रकाश में, सुरक्षा के लिए लगाई गई लोहे की जंजीरों के सहारे की जाती है। गुफा के अंदर एक आकृति में ‘शेषनाग’ अपने फन के ऊपर पृथ्वी को उठाए हुए हैं।

मान्यता है कि महाभारत में विजय प्राप्त करने के पश्चात पांडवों ने यहां आकर भगवान शिव की तपस्या की थी। माना जाता है कि पाताल भुवनेश्वर में की गई पूजा, उत्तराखंड की चारधाम यात्रा के बराबर है। यहां ‘केदारनाथ’, ‘बद्रीनाथ’ और ‘अमरनाथ’ की मूर्तियां लिंग के रूप में विराजमान हैं।

गुफा के अंदर चार प्रवेश द्वार हैं, जिन्हें ‘रण द्वार’, ‘पाप द्वार’, ‘धर्म द्वार’ एवं ‘मोक्ष द्वार’ के रूप में जाना जाता है। माना जाता है कि ‘पाप द्वार’, रावण की मृत्यु के तुरंत बाद बंद हो गया था। ‘रण द्वार’, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘युद्ध पथ’, महाभारत के युद्ध के बाद बंद हो गया। वर्तमान में वहां केवल दो प्रवेश द्वार खुले हैं— ‘धर्म द्वार’ और ‘मोक्ष द्वार’। मान्यता है कि धर्म द्वार ‘कलियुग’ की समाप्ति पर बंद हो जाएगा और मोक्ष द्वार ‘सतयुग’ के अंत में स्वतः बंद हो जाएगा।

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