सम्यक् बोध का जीवन
दुःख-नाश के लिए राजकुमार सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या का मार्ग चुना। कई दिनों तक अनशन करने के कारण उनकी काया अत्यधिक कृश हो गई थी। सुजाता नाम की एक ग्रामबाला नित्य उनके लिए कुछ खाद्य पदार्थ तैयार करके लाया करती...
दुःख-नाश के लिए राजकुमार सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या का मार्ग चुना। कई दिनों तक अनशन करने के कारण उनकी काया अत्यधिक कृश हो गई थी। सुजाता नाम की एक ग्रामबाला नित्य उनके लिए कुछ खाद्य पदार्थ तैयार करके लाया करती थी, परंतु राजकुमार ने कभी उस खीर की ओर देखा भी नहीं। एक दिन पूर्णिमा के अवसर पर भी सुजाता खीर लेकर आई, लेकिन राजकुमार मौन बैठे रहे। इसी बीच, पांच-सात ग्रामबालाएं एक लोकगीत गाती हुई वहां से निकलीं, जिसका आशय था : ‘वीणा के तार को न इतना खींचो कि वह टूट जाए और न इतना ढीला छोड़ो कि वह बजे ही नहीं।’ यह गीत सुनकर राजकुमार ने जीवन के अनुभव पर विचार किया और उन्हें यह समझ में आया कि वे जीवन की वीणा के तार को अत्यधिक कस रहे हैं, जिससे वह नष्ट हो सकता है। यह विचार उनके मन में गहरे रूप से बसा, और उन्होंने निर्णय लिया कि शरीर की रक्षा के लिए उन्हें कुछ अधिक संतुलित और मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। उसी दिन से उन्होंने सुजाता द्वारा लाई हुई खीर को ग्रहण किया। सम्यक् बोध प्राप्त करने के बाद, वे सम्पूर्ण ज्ञान के साथ बुद्ध बने और ‘मध्यम मार्ग’ को उपास्य मानते हुए जीवन को अपनाया।

