बाबा बैद्यनाथ धाम में स्थित शिवलिंग पर शृंगार पूजा में सजने वाला ‘पुष्प नाग मुकुट’ देवघर जेल में ही तैयार किया जाता है और इसे बनाते हैं वहां के कैदी। पूरी शुद्धता और स्वच्छता से जेल के अंदर इस मुकुट को तैयार करने के लिए एक विशेष कक्ष है, जिसे बाबा कक्ष कहते हैं। यहां पर एक शिवालय भी है। कैदी उपवास रखकर बाबा कक्ष में नाग मुकुट बनाते हैं। शाम में यह मुकुट जेल से बाहर निकालता है और फिर जेल के बाहर बने शिवालय में मुकुट की पूजा होती है।
भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक माह है श्रावण मास। इस मास में भगवान शिव की आराधना, संयम, साधना और सेवा का भाव सर्वोपरि रहता है। श्रद्धालु भक्तगण गंगाजल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करते हैं और यही भाव एक विराट सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिकता का प्रतीक है।
भगवान शिव को जल अर्पण करने का प्रतीकात्मक भाव, आत्मशुद्धि, तप और समर्पण से जुड़ा है। कांवड़ यात्रा इसी भक्ति का जीता-जागता उत्सव है, जिसमें लाखों श्रद्धालु पैदल चलकर पवित्र नदियों, विशेषकर मां गंगा से जल लेकर अपने गांव, नगर अथवा तीर्थस्थलों पर स्थापित शिवालयों में अभिषेक हेतु जाते हैं। यह न केवल आस्था की शक्ति का प्रमाण है, बल्कि भारतीय संस्कृति की जीवंतता, सामूहिकता और समर्पण का भी प्रतीक है। श्रावण मास, जल चढ़ाने के साथ जल धारा व जीवन की धारा को शुद्ध करने का उत्सव भी है। कांवड़ यात्रा केवल आस्था की नहीं, उत्तरदायित्व की यात्रा है।
‘शिवत्व’ अर्थात् लोक मंगल की वह विराट भावना जिसमें स्वयं अनेक कष्टों को सहकर भी दूसरों के कष्टों को मिटाने का हर सम्भव प्रयास किया जाता है।
अपने भक्तों की हर उस इच्छा की पूर्ति भगवान महादेव ने की जो भक्तों द्वारा उनसे याचना की गई। जिसके अंदर लोकमंगल का भाव न हो, जिसकी प्रवृत्ति में परोपकार न हो और जिसका मन किसी की पीड़ा को देखकर व्यथित न होता हो वह व्यक्ति शिव-शिव कहने मात्र से कभी भी शिव भक्त नहीं हो सकता। जो हर स्थिति में भक्तों का कल्याण करे वह ‘शिव’ और जो कल्याण की भावना रखे वही ‘शिव भक्त’ है।
सावन शुरू होते ही विश्व श्रावणी मेले में एक माह तक सुल्तानगंज (बिहार) से बाबा वैद्यनाथ की नगरी देवघर (झारखंड) तक आस्था का महासमुंद्र उमड़ पड़ता है और इसमें गोते लगाती है कांवड़ियों की महाआस्था। परंपराओं से बंधी बाबा धाम कांवड़ यात्रा की शुचिता और पवित्रता के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक गरिमा भी है। जब संग में मां गंगा हों और रास्ते में हर सहयात्री शिव के रूप में हों। जहां सिर्फ और सिर्फ एक्य का भाव हो, वहां शिवत्व का बोध तो होना ही है।
श्रावण मास हिन्दू पंचांग के अनुसार भगवान शिव को समर्पित सबसे पवित्र मास है। इस दौरान लाखों श्रद्धालु गंगा से जल भरकर 105 किमी लंबी नंगे पांव पवित्र कांवड़ यात्रा करने बाबा वैद्यनाथ पर जलाभिषेक करते हैं। कांवड़ यात्रा भारत की एक अद्भुत आध्यात्मिक परंपरा है, जो श्रद्धा, समर्पण और संयम का प्रतीक है। यह यात्रा शिवभक्ति के पर्व के साथ आत्मशुद्धि, अनुशासन और आस्था का भी संदेश देती है।
एक ऐसी व्यवस्था जहां न जाति, न धर्म। यहां सब कुछ एक है। उत्तरवाहिनी गंगा के एक ही घाट से संकल्प के साथ सब जल उठाते हैं। सब के रास्ते एक होते हैं। सबके नाम एक होते हैं यानी सभी कांवड़ यात्री ‘बम’ हैं। सबके कपड़े एक होते हैं- ‘गेरुआ’। सबका दर्द एक होता है यानी पैर में छाले व असह्य पीड़ा और सबकी दवा भी एक होती है- 12 ज्योतिर्लिंग में सर्वाधिक महिमामंडित बाबा वैद्यनाथ कामना लिंग पर जलाभिषेक। महादेव को जल चढ़ाते ही कष्ट ग़ायब।
सावन में सिर्फ देवघर में ही रोज तकरीबन एक लाख लोग कामना लिंग पर जलाभिषेक करते हैं। हालांकि, पूरा भादो भी कांवड़िये चलते हैं। बिहार के सुल्तानगंज से झारखंड की बाबा नगरी (देवघर) तक की लंबी कांवड़ यात्रा में नियमों का हर कांवड़िया दृढ़ता से पालन करता है। सुल्तानगंज की उत्तर वाहिनी गंगा में डूबकी लगाने के बाद कांवड़िये बाबा अजगैबीनाथ की पूजा करते और दो पात्रों में गंगा जल भरकर संकल्प के साथ कंधे पर कांवड़ वरण कर ‘बोलबम’ के महामंत्र का जाप करते हुए यात्रा पर निकल पड़ते हैं। यात्रा के दौरान कांवड़ कहीं भी जमीन पर नहीं रखे जाते। विश्राम करने वक्त अगर झपकी भी आ गयी तो बगैर स्नान किये कांवड़ छूना भी मना है। बहुत सारे शिवभक्त फलाहार पर जाते हैं। यात्रा के दौरान कड़ी धूप या बारिश में पांव में छाले लिये कई किलोमीटर चलने के बाद जहां रुकते हैं वहां सभी उनके सहयोग के लिए तत्पर मिलते हैं।
105 किमी में 95 किमी बिहार में पड़ता है। बिहार समाप्त होते ही दुम्मा में विशाल गेट से झारखंड में कांवड़िया प्रवेश करते हैं और 10 किमी चल कर बाबा की शरण में पहुंच जाते हैं। पूरे रास्ते में लगभग दोनों ओर दुकानें सजी होती हैं। उसमें कांवड़ियों के लिए खाने-पीने से लेकर हर तरह की मुकम्मल व्यवस्था। सरकार भी अपनी भूमिका में सजग दिखती है। लेकिन, इतनी लंबी और जंगल, पहाड़ होते हुए बाबा धाम की दुरूह यात्रा बगैर जनसहभागिता के सिर्फ सरकार के भरोसे पूरी नहीं हो सकती और यह दिखता भी है। सरकार से ज्यादा गैर-सरकारी संस्थाएं पूरे रास्ते कांवड़ियों की सेवा निःस्वार्थ भाव से करती हैं। एक से बढ़कर एक शिविर लगाये जाते हैं। सबसे बड़ी बात, सेवा भावना अधिक रहती है। इनमें महिलाओं की भूमिका तो वंदनीय है। सेवा शिविरों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम तो कांवड़ियों के दर्द ही हर लेते हैं। इस धार्मिक पर्यटन का लाभ व्यावसायिक रूप से दोनों प्रदेशों को मिलता है।
झारखंड के देवघर स्थित कामना लिंग को भगवान शंकर के द्वादश ज्योतिर्लिगों में सर्वाधिक महिमामंडित माना जाता है। यहां दो बार संकल्प की अनोखी परंपरा है। वैद्यनाथ धाम के मुख्य पुजारी बताते हैं कि संकल्प के बिना कोई भी पूजा पूर्ण नहीं होती। अन्य तीर्थस्थलों में एक बार संकल्प होता है, लेकिन वैद्यनाथ धाम की कांवड़ यात्रा में दो बार संकल्प की प्रथा है। पहला संकल्प सुल्तानगंज में उत्तर वाहिनी गंगा से कांवड़ में जल उठाने के समय होता है और दूसरा बाबा के दरबार में पहुंचकर शिवगंगा में स्नान करने के बाद दोनों पात्रों में लाए गए जल का संकल्प करवाना अनिवार्य है। श्रद्धालु संकल्प के बाद एक पात्र से यहां कामना लिंग पर जलाभिषेक करते हैं और दूसरे पात्र का जल बाबा बासुकीनाथ के दरबार में पहुंचकर चढ़ाया जाता है। बदेवघर में कराया गया संकल्प मनोकामना और सुख-समृद्धि के लिए।
बाबा बैद्यनाथ धाम में स्थित शिवलिंग पर शृंगार पूजा में सजने वाला ‘पुष्प नाग मुकुट’ देवघर जेल में ही तैयार किया जाता है और इसे बनाते हैं वहां के कैदी। पूरी शुद्धता और स्वच्छता से जेल के अंदर इस मुकुट को तैयार करने के लिए एक विशेष कक्ष है, जिसे बाबा कक्ष कहते हैं। यहां पर एक शिवालय भी है। कैदी उपवास रखकर बाबा कक्ष में नाग मुकुट बनाते हैं। शाम में यह मुकुट जेल से बाहर निकालता है और फिर जेल के बाहर बने शिवालय में मुकुट की पूजा होती है। इसके बाद कोई जेलकर्मी इस नाग मुकुट को कंधे पर उठाकर बोलबम-बोलबम का जाप करते हुए इसे बाबा के मंदिर तक पहुंचाता है।
कामना लिंग के नाम से विश्व प्रसिद्ध बाबा वैद्यनाथ के सिर पर शृंगार पूजा के समय प्रतिदिन फूलों और बेलपत्र से तैयार किया हुआ नाग मुकुट पहनाया जाता है। यह सदियों पुरानी परंपरा है। कहा जाता है कि वर्षों पहले एक अंग्रेज जेलर था। उसके बेटे की अचानक तबीयत बहुत खराब हो गई। उसकी हालत बिगड़ती देख लोगों ने जेलर को बाबा के मंदिर में नाग मुकुट चढ़ाने की सलाह दी। जेलर ने लोगों के कहे अनुसार ऐसा ही किया और उनका पुत्र ठीक हो गया। तभी से यहां यह परंपरा बन गई।
देवघर के कामना ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक करने वालों की पूजा बासुकीनाथ (नागेश) की पूजा बिना अधूरी मानी जाती है। यही कारण है कि वैद्यनाथ धाम आने वाले कांवड़िये नागेश ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात बासुकीनाथ मंदिर में जलाभिषेक करना नहीं भूलते। देवघर से करीब 45 किलोमीटर दूर बासुकीनाथ मंदिर झारखंड के दुमका जिले में स्थित है।