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प्रकृति से सामंजस्य का सांस्कृतिक उत्सव

बूढ़ी दिवाली एक दिसंबर

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बृज मोहन तिवारी

पूरे देश में उजाले के पर्व दिवाली को मनाने के एक माह बाद उत्तराखंड के जौनसार-बावर क्षेत्र में इस पर्व का उत्सव, खास तरीके से मनाया जाता है। इसे ‘बूढ़ी दिवाली’ के नाम से जाना जाता है। यह महज त्योहार नहीं, बल्कि जौनसार-बावर के लोक जीवन, परंपराओं और प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक है। इस वर्ष, बूढ़ी दिवाली एक दिसंबर को मनाई जाएगी। उत्तराखंड के कई हिस्सों में इसे भैला कहा जाता है। मिठाइयों की जगह स्थानीय पकवान, मोसूवा, बावर व मूड़ी बनाए जाते हैं।

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बूढ़ी दिवाली का त्यौहार मुख्य दिवाली के एक महीने बाद मनाने की विशिष्ट परंपरा जौनसार-बावर क्षेत्र की विशिष्टता लिये हुए है। इसके आयोजन में कई मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। मान्यता के अनुसार, जब भगवान श्रीराम अयोध्या लौटे, तो उनके आगमन का समाचार इस दूरवर्ती क्षेत्र में एक महीने बाद पहुंचा, जिसके कारण यहां के लोग दिवाली एक महीने बाद मनाने लगे। वहीं, एक और व्यावहारिक कारण यह है कि जौनसार-बावर एक कृषि प्रधान क्षेत्र है, जहां मुख्य दिवाली के समय किसान अपनी फसल की कटाई में व्यस्त रहते हैं। फसल कटाई के बाद, लोग इस पर्व को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।

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प्राकृतिक अनुकूल लोक संस्कृति

बूढ़ी दिवाली की सबसे खास बात यह है कि यह पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का संदेश देती है। मुख्य दिवाली पर जहां पटाखों और ध्वनि प्रदूषण का बोलबाला होता है, वहीं यहां पर लोग पारंपरिक और इको-फ्रेंडली तरीके से इस पर्व को मनाते हैं। इस दिन, ग्रामीण चीड़ या भीमल की लकड़ियों से बने गट्ठर जलाकर, ढोल-दमाऊं की थाप पर लोक नृत्य करते हैं। ये लकड़ियां ‘हौले’ या ‘भैला’ के नाम से जानी जाती हैं, जिन्हें जलाकर और करतब दिखाकर उत्सव मनाया जाता है। इन नृत्यों में मुख्य रूप से रासो तांदी, झैंता और हारुल जैसे पारंपरिक लोक नृत्य शामिल होते हैं।

संस्कृति आयोजन

बूढ़ी दिवाली का उत्सव पूरी तरह से जौनसारी लोक संस्कृति से जुड़ा होता है। इस दिन गांव के लोग पारंपरिक वेशभूषा में सज-धजकर पंचायती आंगन में इकट्ठा होते हैं। समूह में लोग हाथ में तलवार लिये खास पहनावे के साथ नृत्य करते हैं। इस दौरान, विशेष रूप से हिरण नृत्य और हाथी नृत्य जैसे प्रदर्शन होते हैं। काठ के हाथी को वस्त्रों और आभूषणों से पारंपरिक रूप से सजाया जाता है। इस काठ के हाथी को कुछ लोग कंधों पर उठाते हैं। हाथी के ऊपर बैठने वाला व्यक्ति गांव का मुखिया या वरिष्ठ नागरिक होता है। जौनसार के कोरूवा गांव में तो काठ के हिरण का नृत्य प्रमुख आकर्षण का केंद्र बनता है, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग वहां पहुंचते हैं। बूढ़ी दिवाली के दौरान, रस्साकशी, होलियात नृत्य और अखरोट वितरण जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। इन सभी आयोजनों का उद्देश्य न केवल लोक संस्कृति को जीवित रखना है, बल्कि ग्रामीणों के बीच सामूहिकता और एकता की भावना को भी बढ़ावा देना है।

पर्यटकों का आकर्षण

बूढ़ी दिवाली के दौरान जौनसार-बावर क्षेत्र में उत्सव का माहौल बना रहता है। यहां आने वाले पर्यटक इस अनूठे पर्व का हिस्सा बनते हैं और जौनसार की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से जुड़ते हैं। पंचायती आंगन में जलती मशालों और लोक संगीत के बीच नाचते-गाते लोग इस दिवाली को अविस्मरणीय बना देते हैं। इस दौरान, स्थानीय लोग महासू देवता के दर्शन कर सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।

उत्तराखंड के जौनसार-बावर क्षेत्र की बूढ़ी दिवाली न केवल एक पर्व है, बल्कि यह इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर, सामूहिकता और प्रकृति के प्रति प्रेम का प्रतीक है।

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