समरसता के लिए छोड़ें तंग नजरिया
शंभूनाथ शुक्ल
मेरा बचपन कानपुर के झकरकटी मोहल्ले में गुजरा। वहां पर दो-दो कमरों के कई घर आबाद थे। हर घर में कोई न कोई जानवर भी होता था। अक्सर तो लोग बकरियां ही पालते थे। मगर हमारे घर पर रंभा नाम की एक भैंस पली थी। बचपन में मुझे टायफायड हो गया तो वैद्य जी ने गाय का दूध पिलाने की सलाह दी। दूर कोने वाले मकान में एक गाय जरूर थी पर वह गाय जिनकी थी उनके घर में खुद कई बच्चे थे और वह हुसैनी बाबा का घर था। हुसैनी परिवार से हमारा कोई परिचय नहीं। आखिर मेरी मां हुसैनी परिवार की बहू से जाकर मिलीं और कहा कि बहिनी बच्चा का मोतीझरा हुआ है उसे गाय का दूध चाही। बस अगले रोज से हुसैनी बाबा हमारे घर दूध लेकर आने लगे। फिर पता चला कि हुसैनी बाबा की गाय अब मात्र सेर भर दूध देती थी पर हुसैनी बाबा ने अपने बच्चों का दूध त्याग कर मेरे घर दूध पहुंचाया। पिताजी ने उनसे दूध के दाम के बारे में पूछा तो हुसैनी बाबा ने डपट दिया और कहा कि ई जो गैया है वह हमाई अम्मां बराबर है हम दूध बेचने के खातिर ओखा नाहीं पाले हैं।
एक जमाना वह था और एक आज है जब अगर किसी मुस्लिम के घर गाय पली हुई गोरक्षा दल वाले देख लें तो मरने-मारने पर उतारू हो जाएं। कभी सोचा गया कि आखिर हमारे समाज में यह दुराव कैसे पैदा हुआ। हर धर्म के लोग शांति चाहते हैं और हर धर्म में कुछ धर्मान्ध ऐसे होते हैं जो अशांति के दूत होते हैं। हिंदू हों चाहे मुस्लिम -कट्टरपंथी तत्त्व सभी जगह होते हैं और अपने निजी स्वार्थों की खातिर जहर बोते रहते हैं। मजे की बात कि ऐसे तत्त्वों के बीच परस्पर सदभाव होता है क्योंकि दोनों ही फसल तो सांप्रदायिकता की ही काटते हैं। सरकार को ऐसे तत्त्वों के प्रति चुप नहीं बैठे रहना चाहिए। हिंदू-मुसलमान इस देश में हजार साल से साथ रह रहे हैं। मगर दोनों के बीच सांप्रदायिक बंटवारे का इतिहास सौ साल से पुराना नहीं है। यह बंटवारा कराने वाला अंग्रेज था जिसने 1857 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वह एकता देखी जो अभूतपूर्व थी। जब हिंदुओं ने कहा कि हमारी जंगे आजादी का नेता बहादुरशाह जफर होगा और मुसलमानों ने कहा कि गाय काटने वाले को सजाए मौत दी जाएगी। तब से ही अंग्रेज समझ गए कि गाय हिंदुओं की कमजोर नस है। इसीलिए अंग्रेज कभी गोवध को मंजूरी देते तो कभी उस पर अंकुश लगाते। इस गाय को अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन रेखा बना दिया। यह अनिवार्य कर दिया गया कि हिंदू का मतलब ही गाय का रक्षक होना है और मुसलमान का अर्थ गोमांस खाने वाला।
कबीर के समय में ही गाय को मारने पर ऐसा आंदोलन चला कि तत्कालीन मुस्लिम शासकों ने गाय मारने पर सजा की तजवीज की। लोदियों ने गाय मारने पर प्रतिबंध ही लगा दिया। बाबर जब भारत आया और इब्राहीम लोदी की पराजय हुई तो उसने मरते समय अपने बेटे हुमायूं को जो नसीहत दी उसमें प्रमुख था कि जहां तक हो सके गाय को नहीं मारना और राजपूतों पर तो पठानों से ज्यादा भरोसा नहीं करना क्योंकि राजपूत अपने मालिक से दगा नहीं करते। शेरशाह सूरी के साम्राज्य में भी गोवध पर पाबंदी थी। इसलिए हिंदुओं में उसका बहुत सम्मान था। बाद में अकबर ने जब पूरे हिंदुस्तान में मुगल बादशाहत कायम की तो उसने पहला काम ही यही किया कि गोवध पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी। जातिपाति के दलदल में फंसे राजपूत अपनी बेटियां तो बादशाह को ब्याहते गए पर मुगल घरानों की बेटियां नहीं ले पाए। इन हिंदू बेगमों ने आकर मुगलों का रहन-सहन ही नहीं बदला बल्कि उनकी मान्यताएं और विचार भी बदल दिए। मुगल बादशाहों द्वारा दी गई माफी की सनदें चित्रकूट और अयोध्या के मंदिरों में सुरक्षित हैं।
मगर एक बात याद रखनी चाहिए कि मुसलमान शासकों और आम प्रजा ने जो गोवध नहीं करने और गोमांस नहीं खाने पर अमल किया उसके पीछे हिंदुओं की कट्टरता अथवा जड़ता नहीं थी। बल्कि इसके पीछे मुस्लिम शासकों द्वारा स्वयं की पहल थी। मगर आज हालात एकदम उलट हैं। गाय के साथ यदि मुसलमान जुड़ जाए तो मान लिया जाएगा कि अवश्य गाय को मारने के मकसद से ही रखा गया है। भले वह उसकी गौमाता की तरह ही सेवा करता हो। गोरक्षा दल वालों को याद रखना चाहिए कि गाय पर हक सिर्फ उन्हीं का नहीं है। गाय ऐसा तो नहीं करती कि हिंदू घर में अधिक दूध देगी और मुस्लिम घर में कम। उसके लिए तो सब बराबर हैं। गोमांस का निर्यात करने वाले हिंदुओं की संख्या मुसलमानों से कहीं ज्यादा है। मगर हिंदू हित वाहिनी और गाय के स्वयंभू भक्तों की तलवार मुसलमानों पर ही गिरती है।