उर्दू का दर्द
गहरे पानी पैठ
डा. ज्ञानचंद्र शर्मा
भारत सरकार के दिल में एक बार फिर से उर्दू का दर्द उठा है। मानव संसाधन मंत्रालय के अल्पसंख्यक एजेंडा के अनुरूप उर्दू भाषा-भाषियों के लिए नौकरियों के ज्यादा अवसर जुटाने और इस भाषा के साथ जुड़े हुए कला एवं शिल्प के संरक्षण के अतिरिक्त इसे स्कूली पढ़ाई के त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत लाए जाने की संभावनाओं को तलाशने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति का गठन किया गया है।
विचार जितना प्रशंसनीय है, उद्देश्य उतना ही निंदनीय है। यह दर्द उर्दू के लिए नहीं, उन वोटों के लिए है जिनकी संभावना सरकार ऐसे कार्यक्रमों में देखती है। हो सकता है चुनाव में इनसे उसके वोटों की संख्या में एक-दो प्रतिशत का अंतर भी पड़ जाये परंतु इससे भाषा का जो अहित हो सकता है, शायद सरकार की सोच से परे हो। यह उर्दू पर मुसलमानों की भाषा का लेबल चिपका कर इसे एक बार फिर से मुख्यधारा से काटने का यत्न होगा।
मानव संसाधन मंत्री में गर्मागर्म निगलने की उतावली रहती है। वह कई बार इससे मुंह जला भी चुके हैं। उनकी अपनी पार्टी में इसके लिए उन्हें नीचा भी देखना पड़ा है परंतु वर्तमान राजनीतिक संकट में वह अपने ‘सौ दिन’ के एजेंडे की सनक के साथ फिर उपस्थित हैं-
मरीज़ो-ए इश्क पर रहमत खुदा की,
मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।
सरस्वती सम्मान प्राप्त प्रसिद्ध उर्दू विद्वान, कहानीकार नैयर मसूद ने एक भेंटवार्ता में इस भाषा के संबंध में अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा था- मुझे उर्दू का भविष्य अत्यंत निराशाजनक दिखलाई पड़ता है। लखनऊ जो कभी उर्दू का एक महत्वपूर्ण केद्र था, वहां भी बहुत कम युवक ऐसे होंगे जो इस भाषा का धारा-प्रवाह प्रयोग कर सकते हों। हम समझते हैं कि डा. नैयर ज़मीनी हकीकत के बहुत करीब हैं।
उर्दू भाषा का जन्म आज से लगभग आठ सौ साल पहले शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ था। इसी समय हिन्दी का भी रूपायन हो रहा था। इस नाते ये दोनों जुड़वां बहनें हैं। अमीर खुसरो ने इन्हें हिन्दी, हिन्दवी, हिन्दुई नामों से पुकारा है जो मूलत: स्थान वाचक हैं। तब उर्दू रेख्त: के नाम से जानी जाती थी और हिन्दी ‘भाषा’ के रूप में। ‘उर्दू’ का शब्दार्थ छावनी होता है। जो भाषा सैनिक शिविरों में बोली-समझी जाती थी ‘उर्दू’ कहलाई। विदेशी सैनिकों को स्थानीय लोगों के साथ संवाद के लिए एक ऐसी भाषा चाहिए थी जो एक-दूसरे को आसानी से समझ आ सके। उर्दू ऐसी ही भाषा थी। लिपि भेद के बावजूद दोनों भाषाओं का शब्द भंडार और व्याकरण अधिकांश एक-सा था। इनमें से एक संस्कृत के संरक्षण में पनप रही थी, दूसरी को अरबी-फारसी का पोषण प्राप्त था। बाद में यह अंतर कुछ बढ़ गया। एक भाषा या भाखा बनी तो दूसरी उर्दू-ए-मुअल्ला।
परस्पर संपर्क से भाषाओं में एक-दूसरे के शब्दों का आदान-प्रदान चलता रहता है। हिन्दी की पाचन शक्ति अधिक है, उसने प्रचुर मात्रा में अरबी-फारसी शब्द आत्मसात कर लिए। परंतु उर्दू श्रेष्ठता की ग्रंथि का शिकार रही। उसने बाहरी शब्दों से परहेज किया बल्कि इन्हें ऐब माना।
देश का विभाजन उर्दू के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ। एक लम्बे समय तक सरकार के सहारे राज करने वाली भाषा सहसा अपदस्थ हो गई। कई क्षेत्रों में उसे पढऩे-पढ़ाने वाला तक भी कोई नहीं रहा और इसे सरकारी संरक्षण की आक्सीजन के सहारे जिंदा रखा जा रहा है। अब हालात कुछ बदल रहे हैं, उर्दू-हिन्दी की खाई का अंतर कुछ कम हो रहा है। जिन लोगों को हिन्दी शब्दों से परहेज था, वे अब इनका बेझिझक प्रयोग करने लगे हैं। ये उसके मुख्य धारा के साथ जुडऩे के लक्षण हैं। शिक्षा मंत्रालय के प्रयास इसे एक बार फिर पीछे धकेल देंगे।
उर्दू पाकिस्तान की राजभाषा बनी तो दिल्ली- यूपी से जाकर वहां बसे साठ साल बाद भी मुहाजिर कहलाने वालों के अतिरिक्त अधिकतर लोगों ने अपने दैनिक व्यवहार की भाषा के रूप में इसे नहीं अपनाया। पाकिस्तान के विखंडन के बहुत से कारणों में से एक बड़ा कारण बंगलादेशियों द्वारा उर्दू के आधिपत्य को नकारना भी था। पंजाब, सिंध और बलोचिस्तान, वर्तमान पाकिस्तान के तीनों प्रांतों में भी अपनी-अपनी भाषा के पक्ष में आवाज़ों उठ रही हैं जिनको अधिक देर तक दबाना शायद मुमकिन न हो। ऐसे में उर्दू का भविष्य अधिक उज्ज्वल प्रतीत नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार संसार में प्रतिदिन एक भाषा मर रही है या किसी दूसरी भाषा में विलीन हो रही है। यह खतरा बड़ी-बड़ी समृद्ध भाषाओं पर भी मंडरा रहा है। उर्दू उनमें से एक हो सकती है। बहुत समृद्ध, बहुत लालित्य और सौष्ठवपूर्ण होते हुए भी इस भाषा को समय की जरूरतों के मुताबिक ढलना होगा। इसकी एक समस्या लिपि को लेकर है जो लिखने-बोलने में काफी जटिल है। इसके लिए वैकल्पिक रूप में देवनागरी लिपि को अपनाया जा सकता है। इस लिपि में प्रकाशित उर्दू साहित्य को जो लोकप्रियता प्राप्त हुई है, इसके पक्ष में प्रबल तर्क है। इससे उर्दू के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं होगा जैसा कि कुछ क्षेत्रों में आशंका व्यक्त की जा रही है।
उर्दू हमारी गंगा-जमनी सभ्यता का एक जीवंत प्रतीक है। ऐसा इस पर संप्रदाय विशेष की भाषा होने के ठप्पे को हटा कर प्रमाणित किया जा सकता है। शिक्षा मंत्रालय घड़ी की सूइयां उल्टी दिशा में घुमाने का यत्न कर रहा है।