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श्री कृष्ण का स्मरण मोक्ष मंत्र

गीता में भगवान कृष्ण ने उन तक पहुंचने के लिए जीव को उन्हें अपने अंतिम विचार में याद करने की सलाह दी है, क्योंकि जीव का आखिरी विचार (मृत्यु से ठीक पहले) ही उसके अगले जन्म को निर्धारित करता है। श्री कृष्ण कहते हैं- जो अंतकाल में मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मेरे भाव को प्राप्त होता है।
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साई वैद्यनाथन

गीता में भगवान कृष्ण ने उन तक पहुंचने के लिए जीव को उन्हें अपने अंतिम विचार में याद करने की सलाह दी है, क्योंकि जीव का आखिरी विचार (मृत्यु से ठीक पहले) ही उसके अगले जन्म को निर्धारित करता है। श्री कृष्ण कहते हैं- जो अंतकाल में मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मेरे भाव को प्राप्त होता है। (गीता 8.5)
लेकिन हममें से हर कोई (अपने अंतिम वक्त में) अपने परिवार, अपने पैसे और संपत्ति के बारे में ही सोच रहा होगा, क्योंकि हमारे मस्तिष्क ने जिंदगी भर केवल यही किया है। तो हममें से अधिकांश का पुनर्जन्म होगा और हम संसार (जन्म और मृत्यु के चक्र) में घूमते रहेंगे। पुनर्जन्म और पुनः मृत्यु से छुटकारा तब मिल सकता है, जब श्री कृष्ण को याद करते हुए शरीर छोड़ा जाये। लेकिन यह उतना आसान नहीं, जितना लगता है, क्योंकि मस्तिष्क भी आदत से बंधा है। यहां तक कि नारद, जो लगातार भगवान के नाम का जाप करते हैं, उसे दबाव में भूल गए।

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सबसे बड़ा भक्त
एक बार देवर्षि नारद ने भगवान विष्णु से पूछा कि उनका सबसे बड़ा भक्त कौन है, जवाब में भगवान ने एक किसान की ओर इशारा किया। हर वाक्य के बाद भगवान का नाम लेने वाले नारद जी उस किसान के पास पहुंच गये। उन्होंने किसान से पूछा, ‘आप भगवान को कितनी बार याद करते हो?’ किसान ने जवाब दिया, ‘उतनी बार, जितना मेरा काम अनुमति देता है।’ यह सुनकर नारद जी किसान को उनसे बड़ा भक्त मानने के भगवान विष्णु के फैसले पर हंसने लगे। कुछ दिनों बाद, विष्णु ने नारद को तेल से भरा एक बर्तन दिया और उसे सिर पर रख कर एक पहाड़ी का चक्कर लगाने के लिए कहा। साथ ही कहा कि तेल गिरना नहीं चाहिये। नारद जी को जैसा कहा गया, वैसा उन्होंने बड़े ध्यान से किया और लौट आए। भगवान विष्णु ने पूछा, ‘चलते-चलते मुझे कितनी बार याद किया?’ अचंभित हुए नारद ने कहा, एक बार भी नहीं, क्योंकि मेरी एकाग्रता तेल पर थी।

श्राप वरदान में बदल गया
जीवन के निरंतर खेल में, भगवान काे भूल जाना आसान है। एक बार पांडव अर्जुन के पोते और हस्तिनापुर के राजा परीक्षित से ऋषि शमीक का अनादर हो गया। इस पर शमीक के बेटे श्रृंगी ने परीक्षित को 7 दिन बाद तक्षक सांप के काटने से मरने का श्राप दे दिया। जब बचने का कोई उपाय नहीं सूझा, तो परीक्षित ने ऋषि शुकदेव को अपने आखिरी सप्ताह में भगवान कृष्ण की महिमा सुनाने के लिए आमंत्रित किया। श्राप के कारण तक्षक के काटने पर राजा की मृत्यु तो हुई, लेकिन प्रभु के स्मरण के चलते राजा को कृष्ण के चरणों में स्थान मिला।
राजा परीक्षित के पास तो एक सप्ताह का वक्त था, लेकिन राजा इन्द्रद्युम्न की कहानी बताती है कि भगवान को एक पल के लिए भी दिल से स्मरण करना पर्याप्त हो सकता है। कथा है कि एक बार, ऋषि अगस्त्य ने पांड्या देश के राजा इन्द्रद्युम्न को हाथी में बदलने का श्राप दे दिया। एक हाथी के रूप में इन्द्रद्युम्न जंगल में घूमने लगे। वहां, उन्हें हाथियों का एक झुंड दिखा और उन्होंने गजराज से लड़ने का फैसला किया। गजराज को हराकर, इन्द्रद्युम्न झुंड का मुखिया गजेंद्र बन गये। अब उनके पास सब कुछ था- झुंड की अपार शक्ति और शासन करने के लिए एक बड़ा क्षेत्र। एक दिन, झुंड झील पर पहुंचा, जहां एक शक्तिशाली मगरमच्छ रहता था। जैसे ही गजेंद्र पानी में उतरे, मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया। गजेंद्र ने पहले धीरे से अपना पैर खींचा, फिर सारी शक्ति के साथ, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अपने राजा को खतरे में देखकर पूरा झुंड मदद करने आया, लेकिन मगरमच्छ बहुत शक्तिशाली था। धीरे-धीरे, झुंड अपने रास्ता चला गया। मगरमच्छ ने गजेंद्र को पूरी तरह थका दिया। अपनी आखिरी सांसें गिन रहे गजेंद्र ने भगवान विष्णु को पुकारा। तत्काल ही, विष्णु जी ने मगरमच्छ को मारने के लिए अपना सुदर्शन चक्र भेजा। मान्यता है कि मगरमच्छ से मुक्त होकर, गजेंद्र को भगवान के निवास स्थान वैकुण्ठ में जगह मिली।
ईश्वर का नाम-जप इसी वक्त से इसलिए जरूरी है ताकि मृत्यु के दरवाजे पर ईश्वर का नाम जिह्वा पर हो और मोक्ष यानी जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल सके।

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