लोकतंत्र को खोजती धूमिल की कविताएं
कृष्ण प्रताप सिंह
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है, जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई मतलब होता है? संसद पर अपने खास तरह के तंजों के लिए मशहूर हिन्दी कविता के एंग्रीयंगमैन सुदामा पांडे ‘धूमिल’ ने अब से चार दशक पहले यह सवाल पूछा, तो कौन कह सकता है कि उनके दिलोदिमाग में नये पुराने सामंतों, थैलीशाहों और धर्मांधों द्वारा प्रायोजित देश के लोकतंत्र की सांसत कर डालने वाली उन कारस्तानियों के अंदेशे नहीं थे, जिनके आज हम भुक्तभोगी हैं?
धूमिल का जन्म नौ नवम्बर, 1936 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के खेवली गांव में हुआ था। बचपन में उनके सिर से पिता का साया उठ गया और वाराणसी के एक इंटर कॉलेज में चल रही उनकी पढ़ाई छूट गयी। 13 साल में उनकी शादी कर दी गयी और उन्हें एक लकड़ी व्यापारी के यहां नौकरी शुरू करनी पड़ी। बाद में उन्होंने एक औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र से बिजली सम्बन्धी कामों का डिप्लोमा किया और उसी में अनुदेशक नियुक्त हो गये। नौकरी मिली तो उन्हें सीतापुर, बलिया और सहारनपुर की हिजरत भी करनी पड़ी, लेकिन उनका मन बनारस में रमता था या फिर खेवली में।
ब्रेन ट्यूमर से 10 फरवरी, 1975 को वे अचानक हारे तो उनके परिजनों तक ने रेडियो पर उनके निधन की खबर सुनने के बाद ही जाना कि वे कितने बड़े कवि थे। बनारस के मणिकर्णिका घाट पर उनकी अन्त्येष्टि के समय सिर्फ कुंवरनारायण और श्रीलाल शुक्ल पहुंचे थे। अपने आत्मकथ्यों में वे जिस मृत्यु को अनिश्चित लेकिन दिन में सैकड़ांे बार संभव बताते थे, वह उस दिन दबे पांव आई थी।
वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह बताते हैं कि औपचारिक उच्च शिक्षा से महरूम धूमिल बाद में कविता सीखने व समझने की बेचैनी से ऐसे ‘पीड़ित’ हुए कि जीवन भर विद्यार्थी बने रहे। उन्होंने अपने पड़ोसी नागानंद और कई शब्दकोशों की मदद से अंग्रेजी भी सीखी, ताकि उसकी कविताएं भी पढ़ व समझ सकें। वामपंथी होने के बावजूद वे न स्त्रियों को लेकर मर्दवादी सोच से मुक्त हो पाये और न गांवों व शहरों के बीच पक्षधरता के चुनाव में सम्यक वर्गीय दृष्टि अपना पाये। अशोक वाजपेयी का संग्रह ‘शहर अब भी संभावना है’ आया तो उन्होंने उसकी आलोचना की कि शहर तो एक फ्रंट है, वह संभावना कैसे हो सकता है?
‘अनौपचारिक जानकारियों’ ने उनका बनी-बनायी वाम धारणाओं की कैद से निकलना आसान किये रखा और वे सच्चे अर्थों में किसान जीवन के दुःखों व संघर्षों के प्रवक्ता और सामंती संस्कारों से लड़ने वाले लोकतंत्र के योद्धा कवि बनकर निखर सके। खाये-पिये और अघाये लोगों की ‘क्रांतिकारी’ बौद्धिक जुगालियों में गहरा अविश्वास व्यक्त करने में उन्होंने ‘सामान्यीकरण’ और ‘दिशाहीन अंधे गुस्से की पैरोकारी’ जैसे गम्भीर आरोप भी झेले लेकिन पूछते रहे कि ‘मुश्किलों व संघर्षों से असंग’ लोग क्रांतिकारी कैसे हो सकते हैं?
धूमिल ने अपना छायावादी अर्थध्वनि वाला उपनाम क्यों रखा, इसकी भी एक दिलचस्प अंतर्कथा है। बनारस में उनके समकालीन एक और कवि थे-सुदामा तिवारी। वेे अभी भी हैं और सांड बनारसी उपनाम से हास्य कविताएं लिखते हैं। धूमिल नहीं चाहते थे कि नाम की समानता के कारण दोनों की पहचान में कन्फ्यूजन हो। इसलिए उन्होंने अपने लिए उपनाम की तलाश शुरू की। कविता के संस्कार उन्हें छायावाद के आधारस्तंभों में से एक जयशंकर ‘प्रसाद’ के घराने से मिले थे, अतएव तलाश ‘धूमिल’ पर ही खत्म हुई।
धूमिल ने अपनी छोटी-सी उम्र में ही हिन्दी आलोचना का परम्परा से कहानियों की ओर चला आ रहा मुंह घुमाकर कविताओं की ओर कर लेने में सफलता पा ली थी। यह और बात है कि उनकी पहली प्रकाशित रचना एक कहानी ही थी, जो अपने समय की बहुचर्चित पत्रिका ‘कल्पना’ में छपी थी। वे बनारस में साहित्यकारों के स्वाभिमान के प्रतीक माने जाते थे। कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि वे नामवर सिंह के लठैत की तरह काम करते थे। धूमिल के जीवित रहते 1972 में उनका सिर्फ एक कविता संग्रह प्रकाशित हो पाया था—संसद से सड़क तक। ‘कल सुनना मुझे’ उनके निधन के कई बरसों बाद छपा और उस पर 1979 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मरणोपरांत दिया गया। बाद में उनके बेटे रत्नशंकर की कोशिशों से उनका एक और संग्रह छपा-सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।
उनकी इस लोकप्रिय कविता को याद करें—एक आदमी रोटी बेलता है/एक आदमी रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी भी है/जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूं/यह तीसरा आदमी कौन है/और मेरे देश की संसद मौन है, तो अब, जब संसद का मौन कई और दशक लम्बा हो गया है। यह तथ्य और साफ हो गया है कि भारत की विकल्प और विपक्ष दोनों से विरहित जनविरोधी राजनीति का असली प्रतिपक्ष धूमिल की कविताओं में ही बसता है। यकीनन, धूमिल को एक बार फिर नये सिरे से समझे जाने की जरूरत है। 2006 में तत्कालीन सरकार ने उनकी ‘मोचीराम’ कविता को एनसीईआरटी की एक कक्षा की पाठ्यपुस्तक में शामिल किये जाने को लेकर आसमान सिर पर उठा लिया था और उसे बदलवा कर ही दम लिया था।