बनाइए, खाइए और ढिंढोरा पीटिए
तिरछी नज़र
अंशुमाली रस्तोगी
लॉकडाउन जब से चालू हुआ है, मैंने घर में खाना खाना बंद कर दिया है। जब भूख लगती है, फेसबुक पर चला आता हूं। यहां घर से कहीं अधिक स्वादिष्ट भोजन देखने को मिल जाता है। इतनी तरह के व्यंजन होते हैं कि समझ में नहीं आता क्या देखूं और क्या छोड़ दूं! खाने में इतनी तृप्ति नहीं मिलती, जितना देखकर ही मिल जाती है। यहां जितनी तरह के लोग, उतनी तरह के खाने हैं। जिसे देखो वही रसोई में खाना बनाने में व्यस्त है। लोगों ने तो दिन-रात के हिसाब से खाने के टास्क बांट रखे हैं। मसलन सुबह के खाने में फलां डिश बनेगी, तो रात के खाने में अलां डिश।
लॉकडाउन ने लोगों को ‘पेटू’ बना दिया है। घर-घर में या तो खाना बनाने की बातें हैं या फिर कोरोना पर डॉक्टरी ज्ञान। फेसबुक पर बाकायदा लोग आपस में पूछते हैं कि आज खाने में क्या पकाया? जो पकाया, उसकी फोटू अपनी दीवार पर चढ़ाओ न। लोग उस पर अपने कमेंट्स देते हैं। उन कमेंट्स तो पढ़कर मुझे लगता नहीं कि इस वर्ग को उन भूखे मजदूरों की रत्तीभर चिंता रही होगी, जो खाली पेट पैदल ही अपने घरों की तरफ़ निकल पड़े थे। या उनकी, जिन्हें एक वक्त का खाना बमुश्किल नसीब हो पा रहा है।
फेसबुक पर फैली खाने-पीने की तस्वीरें प्रायः मुझे अश्लील जान पड़ती हैं। लगता है, सब मिलकर अन्न, अन्नदाता और भूखों का ‘मजाक’ उड़ा रहे हैं। किसी के दिल में उनके प्रति संवेदना नहीं। सब अपना खा-पका और लॉकडाउन का आनंद भोग रहे हैं।
मुझसे भी कई दफा पूछा गया—आप इन दिनों क्या डिश पका रहे हैं? मैं सोच में पड़ जाता हूं कि खाए-पिए-अघाए लोगों की मानसिकता कितनी कुंद होती है! उन्हें सिवाय खाने के कुछ सूझता ही नहीं। थोड़ा उनके बारे में भी सोचिए, जिनके पास खाने का एक दाना तक नहीं। लॉकडाउन ने उनका न सिर्फ रोजगार बल्कि भूख भी छीन ली है। लेकिन नहीं, ऐसा वे इसलिए नहीं सोचेंगे क्योंकि उनके पेट भरे हुए हैं।
लॉकडाउन का हासिल यह हुआ है कि लोग ‘हलवाई’ बन गए हैं। मैंने प्लान कर लिया है कि मेरे घर कभी कोई पार्टी होती है तो खाना मैं इन्हीं हलवाइयों से ही बनवाऊंगा! उम्मीद है, वे मुझे निराश नहीं करेंगे।