जीने की कला सिखाता है संतोष
बनीसिंह जांगड़ा
भारतीय दर्शन में सुख व शांति की प्राप्ति के बहुत सुंदर सूत्र मिलते हैं। इसके वैदिक वाङ्मय में महर्षि पतंजलि अपने योग दर्शन में कहते हैं—संतोषादनुत्तमसुखलाभ: अर्थात संतोष के धारण करने से दुनिया का सबसे श्रेष्ठ माना जाने वाला मोक्ष जैसा सुख व आनन्द मिलता है। वेद में ऐश्वर्य युक्त शांति व संतोष की प्रार्थना भी की गई। आज भौतिक पदार्थों की येन केन प्रकारेण प्राप्ति के लिए आदमी अंधा होकर दिन-रात लगा हुआ है। उसे इतना भर भी सोचने का समय नहीं है कि जो कुछ भी वह कर रहा है, क्या वह उचित भी है? वह इस सत्य को भी भूल बैठा है कि जिसका वह दिन-रात संग्रह कर रहा है, वह सब कुछ इसी जगत में छोड़कर उसे जाना होगा, इस संसार से सदा के लिए विदा होना होगा। धन कमाना बुरा नहीं है, लेकिन अंधा होकर धन कमाना बिल्कुल बुरा है। मनुष्य के जीवन के तीन वय माने गए हैं—बचपन, जवानी और बुढ़ापा। कहा भी गया है कि व्यक्ति बचपन में ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ नाना प्रकार की सद् विद्याएं ग्रहण करे, जवानी में धर्मानुसार खूब धन कमाए व उसे जरूरतमंदों को दोनों हाथों से दान करे और बुढ़ापे में आहार-विहार का संयम करता हुआ प्रभु भजन करे। अध्यात्म का मार्ग आदमी को संतोष प्रदान कर सकता है, अन्यथा आदमी के अंदर परिग्रह व भौतिक विस्तार की भूख बढ़ती है तो आदमी बेसब्रा होकर कर्म करता है। हिटलर, नेपोलियन और सिकंदर जैसे योद्धाओं को जब बेसब्री के चश्मे लगे तो उन्होंने पूरे विश्व को अपने अधीन करना चाहा था। त्रेता युग के श्रीराम द्वारा मारे गए रावण को भोग विलास की कामनाओं ने इतना बेसब्रा बना दिया था कि उसे ठीक और गलत का भी भान नहीं होता था। रावण को संतोष नहीं था तो वह विशाल साम्राज्य का स्वामी होते हुए अंत तक प्रायश्चित करता हुआ मरा। सुखी जीवन जीने के लिए संतोष का होना अत्यंत आवश्यक है।
जिसके हृदय में एक बार संतोष बैठ गया, उसको दुनिया के सारे खजाने तो मिलते ही हैं। इसके साथ-साथ उसके सारे भय भी निरस्त हो जाते हैं। मृत्यु तक का भय भी उससे कोसों दूर रहता है। मृत्यु आती है तो साधक मृत्यु का वरण करता है, मृत्यु के भय से बौखलाता नहीं है। ऐसा संतोषी व्यक्ति जीने की कला सीख जाता है और असंतोषी व्यक्ति न जीता है न मरता है, बल्कि अपने जीवन को वासनाओं की तृप्ति में लगाता हुआ इसे बस गुजार देता है। नीतिकार शिरोमणि भर्तृहरि ने कहा है—भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता स्तपो प तप्तं वयमेव तप्ता। कालो न यातो वयमेव याता: स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:। भोगों से भोग की कभी तृप्ति नहीं होती है, अपितु भोगों के भोगते जाने से भोगों के प्रति भूख उतरोत्तर बढ़ती जाती है। जिस व्यक्ति को जीवन में संतोष नहीं आता, उसकी जिंदगी का अंत बुरा होता है। जो पूरे विश्व को दास के रूप में देखना चाहता है, एक न एक दिन दास्ता ही स्वयं उसका अंत कर देती है। कामना की पूर्ति से एक और कामना पैदा हो जाती है। भोग भोगने से भोग का कभी अंत नहीं आता। भोग बढ़ते जाते हैं। आदमी भोग भोगता हुआ अपने शरीर, मन व बुद्धि को जर-जर करता हुआ अपने जीवन का अंत कर लेता है। जीवन का सार कुछ नहीं निकलता। जैसे आया था वैसे ही चला गया। जब संतुष्टि आती है तो मनुष्य के पास उपलब्ध विशाल वैभव राशि भी कोई मायने नहीं रखती। कहा भी गया है—गज धन, गऊ धन, बाजी धन और रत्न धन खान। जब आवे संतोष धन सब धन धूलि समान। संतोष मन की एक ऐसी अवस्था है जिसकी प्राप्ति पर संसार के सारे धन धूल के समान लगते हैं। संतोष की प्राप्ति में सब से बड़ी बाधा तृष्णा है। जब मनुष्य तृष्णा का शिकार हो जाता है तो वह तृष्णा के हाथों ही मारा जाता है, लेकिन तृष्णा खत्म नहीं होती। चाह गई चिंता गई मनुआ बेपरवाह जिसको कछु न चाहिए सो ही शहंशाह। ज्यों-ज्यों आकांक्षा बढ़ती-पलती जाएगी, त्यों-त्यों असंतोष भी बढ़ता-पलता जाएगा। संतोष की प्राप्ति केवल अध्यात्म के रास्ते पर चलकर ही हो सकती है। संतोष और असंतोष मानव जीवन की दो दिशाएं हैं। एक उत्थान की ओर ले जाती है और दूसरी पतन की ओर ले जाती है। संतोष आदमी को उत्थान की ओर ले जाने वाला होता है, असंतोष पतन की ओर। पशु, पक्षी, कीट, पतंग, आदि उपलब्ध वस्तुओं से संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन आदमी सब कुछ उपलब्ध होते हुए भी संतुष्ट नहीं होता। इसका करण है मनुष्य को ‘और-और’ की प्राप्ति की लालसा। यह लालसा मनुष्य से इतर प्राणियों में नहीं है। इसलिए उनको जो कुछ मिल जाए, उसी से अपना पेट भरकर अपना जीवन गुजारते हैं। वे कल की चिंता नहीं करते। वे वर्तमान में जीते हैं जबकि मनुष्य वर्तमान को छोड़कर भूत व भविष्य की चिंता करता रहता है। जो सब्रवाला व्यक्ति हैं उसे आने वाले कल और परमात्मा पर पूरा भरोसा होता है कि जिसने आज दिया है, वह कल भी देगा, क्योंकि उसने बीते हुए कल के लिए दिया। संग्रह के प्रयोजन में परमार्थ नहीं है तो संग्रह दुखदायी ही बनता है। वही दुख मन में असंतोष पैदा करता है। मजदूर सूखी रोटी खाकर हाथ का तकिया बनाकर चैन की नींद सो जाता है, क्योंकि उसे संतोष है और धनी व्यक्ति भरपेट भोजन के बाद भी चैन की नींद नहीं ले पाता, क्योंकि उसे अपने प्राप्त पर संतोष नहीं है। संतोषी और असंतोषी में यही मूल अंतर है। अत: सदा सुखी रहने के लिए मन में संतोष का भाव रहना चाहिए।