आओ, हाथ धो लें!
नरेन्द्र देवांगन
खरी-खरी
देश के किसी भी हिस्से में सड़कों से चले जाएं, एक चीज़ पूरे देश में मिलेगी, गंदगी। हालात तो यहां तक हैं कि लोग गंदगी के बराबर स्टूल या चारपाई डालकर बैठे रहते हैं और बदबू का भभका, मक्खियां या कुत्ते उन्हें परेशान करते ही नहीं। बहुत जगह तो गंदगी के बराबर खाद्य वस्तुओं के खोमचे दिखेंगे जहां लोग खा रहे होंगे और फिर बराबर हाथ-मुंह धोकर चल देंगे। यह गंदगी बीमारी फैलाती है, यह दूसरी बात है। बीमारियों में रहने की आदत तो देश की 90 फीसदी जनता को है। यह गंदगी असल में यह एहसास दिलाती है कि इन लोगों और जानवरों में कोई फर्क नहीं है। यह असल में साजिश है जो बड़ी सावधानी और अक्लमंदी से रची गई और थोपी गई है। गंदगी में रहने को मजबूर करना नया नहीं। सदियों से यह हो रहा है। जब जगह की कमी नहीं थी, तब भी लोगों को झूठा खाने की, गंदगी उठाने की और गंदगी में रहने की आदत डाली गई। उन्हें कहा गया कि यह तो तुम्हारे कर्मों का फल है। इसका गरीबी से नहीं दिमागी सफाई से संबंध है।
खुद हर छोटी सी बात पर अपवित्र होने पर नहाने वालों ने जानबूझकर कुछ लोगों के नहाने, हाथ धोने, सफाई करने पर मौखिक रोक लगा रखी थी। वे बेचारे तो साफ कपड़े भी नहीं पहन पाते थे। तरह-तरह की बंदिशें लगा रखी थीं। नतीजा यह है कि आज भी गंदगी में रहना अपना भाग्य समझा जा रहा है। जिनके पास झाडू, फावड़े, हाथों में दमखम है वे भी गंदगी को एक तरफ करने को तैयार नहीं। हां, खाली बैठे शोर मचवा लो। पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन ने सचिन तेंदुलकर को पकड़ा कि वह हाथ धोने की आदत तो डलवाएं। सर्वे के अनुसार शौच के बाद भी केवल 53 फीसदी लोग हाथ धोते हैं। खाने से पहले या बाद में हाथ धोने वाले तो बस 20-20 फीसदी हैं। साबुन से हाथ धोना किसे कहते हैं, यह तो कई जानते ही नहीं। यह सब एक बड़े सुधार की मांग करता है। आरक्षण दो या न दो, नौकरी दो या न दो, इज्जत दो या न दो, पढ़ाई दो या न दो। सफाई जरूर दो। और यह दी नहीं जाएगी, लेनी पड़ेगी और वह भी खुद।
यह ऊंची जमातों का चोंचला नहीं है कि सफाई करके बैठो। यह अपना खुद सिर उठाकर चलना सीखना है। कोई सिखाने आए, यह शर्म की बात है। सचिन तेंदुलकर अगर कर रहा है तो यह उसका बड़प्पन है पर यह करना तो चाहिए हर पंच, सरपंच, सिपाही, फौजी, किसान, मजदूर को। तो उठाओ झाडू, उठाओ बेलचा और साफ कर दो अपने आसपास की जगह और अपने दिमाग पर चिपटा मकड़ी का जाला।