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फैज़ की महफिल

जैसे घर का छोटा बच्चा बड़े पर अधिक ध्यान देने से उपेक्षित अनुभव करता है, अश्क जी वैसा ही अनुभव करने लगे। वह जल्दी-जल्दी अपना गिलास खाली कर रहे थे, जबकि फ़ैज़ साहब का जाम कभी-कभार ही लबों को छूता था। अश्क जी बहक गए और मौका मिलते ही अपनी गजलें सुनाने लगे, मगर लोग अश्क जी को सुनने नहीं आए थे, किसी ने उनकी तरफ तवज्जो न दी।
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आत्मकथ्य

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गालिब छुटी शराब/रवींद्र कालिया
जैसे घर का छोटा बच्चा बड़े पर अधिक ध्यान देने से उपेक्षित अनुभव करता है, अश्क जी वैसा ही अनुभव करने लगे। वह जल्दी-जल्दी अपना गिलास खाली कर रहे थे, जबकि फ़ैज़ साहब का जाम कभी-कभार ही लबों को छूता था। अश्क जी बहक गए और मौका मिलते ही अपनी गजलें सुनाने लगे, मगर लोग अश्क जी को सुनने नहीं आए थे, किसी ने उनकी तरफ तवज्जो न दी। निराश हो कर अश्क डॉ. अतिया निशात को एक तरफ ले गए और देर तक गजलसरा होते रहे।
हम लोगों के पास पाकिस्तान में निर्मित और बाद में एच.एम.वी. द्वारा भारत में जारी फ़ैज़ की गजलों के दो एल.पी. रिकार्ड थे। पृष्ठभूमि में धीमी आवाज में एक रिकार्ड चल रहा था। अचानक किसी दिलजले ने स्टीरियो की आवाज तेज कर दी और नूरजहां की तेज, तीखी और सुरीली आवाज में फ़ैज़ की पंक्तियां फ़िज़ा में तैरने लगीं :
लौट आती है इधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग
महफिल का माहौल फ़ैज़ की इस नज़्म के ठीक विपरीत था। माहौल नज्म की चुगली खा रहा था। लग रहा था जमाने में मुहब्बत के सिवा और कोई दुख ही नहीं। हुस्न है, मुहब्बत है, बेवफाई है। यही सच है, जैसे :
ज़माने भर के गम
या इक तेरा गम
यह गम होगा तो कितने गम न होंगे
हर अदीब लहूलुहान था – कोई मयगुसारी से, कोई शेरो-शायरी से और कोई अफसानानिगारी से।
अश्क जी के बाद अब डीपीटी को दौरा पड़ा था। वह अपना गिलास थामे फ़ैज़ के चरणों में बैठ गया और कान पर हाथ रख कर अवधी की तान छेड़ दी। फ़ैज़ ने राहत की साँस ली, जब से वह इलाहाबाद आए थे मुतवातिर अपना कलाम सुना रहे थे। शायद यही वजह थी कि वह अपने ही शेर निहायत बेदिली से सुना रहे थे जैसे रस्म अदायगी कर रहे हों। उन्होंने ममता से अवधी के किसी शब्द का अर्थ पूछा और इतने प्रसन्न हो गए कि ममता के हाथ से दोनों एल.पी. के कवर लिए, कलम मांगा और उन पर लिखा : ममता के लिए मुहब्बत के साथ – फ़ैज़।
वे दोनों कवर हम लोगों की प्राइज पजेशन है। वर्षों से उन्हें कलाकृति की तरह फ्रेम करवाने की सोच रहा हूं। फ़ैज़ ने बताया कि जब बेगम अख्तर पाकिस्तान आई थीं तो उन्होंने बेगम से एक ठुमरी अनेक बार सुनी थी :
हमरी अटरिया आओ सजनवा
देखा देखी बलम हुई जाए
मैंने जब फ़ैज़ को बताया कि यह ठुमरी मेरे दोस्त सुदर्शन फ़ाकिर ने लिखी थी तो उन्होंने फ़ाकिर के बारे में भी बहुत-सी जानकारी हासिल की और बताया कि वह इस ठुमरी को भारत-पाक संबंधों की रोशनी में सुना करते थे। इसी माहौल में भोजन हुआ, सामूहिक चित्र खींचे गए, आखिरी जाम सड़क के नाम तैयार हुए और महफिल बर्खास्त हुई। डीपीटी लुढ़कते-पुढ़कते फ़ैज़ के साथ ही गाड़ी में सवार हो गया। फ़ैज़ ने कुछ और लोकगीत सुनने की फरमाइश की थी। डीपीटी ने तान छेड़ दी और गाड़ी स्टार्ट हो गई।
हम लोग डीपीटी की क्षमता से परिचित थे, वह अनंत काल तक लोक गीत सुना सकता है। इसका भरपूर परिचय उसने कुछ दिन पहले ही दिया था, जब भीष्म साहनी सपत्नीक हमारे यहाँ रुके हुए थे। शाम को अनायास ही डीपीटी प्रकट हो गए थे, भए प्रगट कृपाला। भीष्म जी से परिचय होते ही उसने ‘चीफ की दावत’ के अंशों का पाठ शुरू कर दिया। भीष्म जी और उनकी पत्नी शीला जी चमत्कृत रह गईं कि यह कैसा शख्स है, जो कविता की तरह कहानी याद रख सकता है। मुझे मालूम था, डीपीटी की स्मरण शक्ति ही नहीं घ्राण शक्ति भी विलक्षण है। उसने कमरे में घुसते ही सूँघ लिया था कि माहौल सुवासित है। उसने अपना कश्कोल (भिक्षापात्र) आगे बढ़ा दिया मय और माशूक के दरबार में कश्कोल ही बढ़ाया जा सकता है, यह इस कोठे का दस्तूर था। कोठे का ही नहीं, इलाहाबाद की संस्कृति का भी। यहां ताज भी कश्कोल में हासिल किया जाता है, जैसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया था, यह नारा बुलंद करके : ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’
उन दिनों फकीरी फैशन में आ चुकी थी, वरना डीपीटी जैसा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग का प्राध्यापक फकीरों के अंदाज में चप्पल चटकाते हुए पैदल विश्वविद्यालय क्यों जाता?
गुरु जी को पैदल चलते हुए देख छात्र सायकिल से उतर कर गुरु जी के पीछे हो लेते। क्लासरूम तक पहंुचते-पहुंचते उसके पीछे अच्छा-खासा जुलूस हो जाता। एक दिन ममता को डीपीटी के साथ आए एक छात्र से उसकी पदयात्रा की जानकारी मिली तो ममता ने डीपीटी की जेब में कुछ रुपए ठूंस दिए कि शायरों और छात्रनेताओं की तरह विश्ववविद्यालय जाना बंद करो। डीपीटी ने जेब से नोट निकाले, आंखों के नजदीक ले जा कर गिने और ममता के वहां से हटते ही अपने साथी को बोतल खरीद लाने के लिए रवाना कर दिया। ममता के स्नेह से वह इतना विभोर हो गया कि देखते ही देखते नोट बोतल में तब्दील हो गए।
ममता नाराज होती, इससे पहले ही डीपीटी ने उसे विश्वास दिलाया, ममता जी, बंदा कल से रिक्शा में विश्वविद्यालय जाएगा, मगर उसके लिए आपको कुछ पैसों का और इंतजाम करना पड़ेगा।

हिन्दी समयडॉटकॉम से साभार

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