उजड़ेंगे वनवासी बसेंगे शेर
सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान में शेरों को बचाने के लिए आदिवासियों के दर्जनों गांव विस्थापित किए जा रहे हैं। प्रकृति पूजक जनजाति गोंड व कोरकू ने हमेशा शेर को जीता-जागता देवता माना है। जल,जंगल व जमीन से उतना ही लिया, जितना जरूरत रही। आदिवासियों का जंगल से उजड़ना मौत समान है। जीवन जीने का दूसरा हुनर उनके पास नहीं है, लेकिन उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। सतपुड़ा के वन्यांचल से लौटकर राजकिशन नैन बयां कर रहे हैं आदिवासियों के उजड़ने की टीस।
आज़ादी के सड़सठ साल बीत जाने के बावजूद अपने ही देश में, देश के अलमस्त आदिम लोग अपने ही लोगों द्वारा जबरदस्ती उजाड़े जा रहे हैं। मध्य क्षेत्र के आदिवासियों के घर, खेत और जंगल छीनकर इनकी पुनर्स्थापना के नाम पर इनके साथ बेहूदा एवं अमानवीय बर्ताव किया जा रहा है। भेड़-बकरियों और गाय-भैंसों की तरह लठ के जोर से हांके जा रहे आदिवासी किंकर्तव्यविमूढ़ से इस अमानुष प्रकोप को डबडबायी आंखों से देख रहे हैं। सवा सौ करोड़ की आबादी में इनकी आहों-कराहों को सुनने वाला कोई नहीं है। जिस धरा पर ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने बाप-दादाओं, अपने पूर्वजों की थाती का जतन से रक्षण करते आये हैं, वहीं से इन्हें खदेड़ा जा रहा है। यह अभद्र कार्य प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत तेजी से लुप्त हो रहे शेरों को संरक्षण देने के नाम पर मध्यप्रदेश के जि़ला होशंगाबाद में किया जा रहा है। होशंगाबाद में अवस्थित सतपुड़ा के वन्यांचल को राष्ट्रीय सुरक्षित उद्यान का दर्जा प्राप्त है। सतपुड़ा की सातों सुरम्य पर्वत श्रेणियां इस तरह आच्छादित हैं मानो सात सगे भाई-बहन आपस में गलबहियां डाले हंसी-खिलगटी कर रहे हों। बंटवारे से पहले तक यहां के सघन वन नाना प्रकार के वन्य जीवों एवं दुर्लभ किस्म की वनस्पतियों से ठसाठस भरे थे। देशज आख्यानों में सतपुड़ा की गिनती आदिम पर्वतों में की जाती है। पुराकाल से यहां आदिम जनजातियों का निवास है। जि़ला होशंगाबाद में कोरकू और गोंड जातियों की बहुलता है। ये लोग कोरकू यानी कोरो माण्डी और गोंडी भाषा बोलते हैं। कोरकू लोगों के पुरखे सतपुड़ा के जंगलों में जड़ें खोदते यानी कोरते थे, इसीलिए ये कोरकू कहलाए। इनके आरंभिक पूर्वज मूला और मुलई थे जिन पर शिव का वरदहस्त है। कोरकू लोग धोती, बण्डी और सिर पर अंगोछा लपेटते हैं। कोरकू स्त्रियां लुगड़ा और चोली पहनती हैं। कोरकुओं में छत्तीस गोत्र पाये जाते हैं। ये खण्डवा, बैतूल और छिंदवाड़ा तक फैले हुए हैं। गोंड भारत की सबसे बड़ी जनजाति है। मध्य प्रदेश के आधे से अधिक हिस्से में आदिवासी रहते हैं। यहां आदिवासियों की 38 जातियां पायी जाती हैं। इनमें गोंड सबसे ज्यादा हैं। गोंड मध्य प्रदेश के बैतूल, छिंदवाड़ा, बालाघाट, खंडवा, शहडोल, मण्डला, सागर, दामोह और छत्तीसगढ़ में सरगुजा और बस्तर तक फैले हुए हैं। मध्य प्रदेश, गोंडवाना के नाम से भी ख्यात रहा है। एक समय वीरांगना रानी दुर्गावती गोंडवाना की अिधश्वरी थी। गोंड, महादेव एवं पार्वती को अपना कुल कर्ता बताते हैं। गोंड लोग गोंडी बोलते हैं। गोंडों की पचास उपशाखाएं हैं। देवोपासना के आधार पर गोंडों के 7 गोत्र हैं जबकि देवगुड़ी के आधार पर इनके 62 गोत्र हैं। राजगोंडों के 18 गोत्र अलग हैं। गोंड पुरुष धोती, बण्डी और सिर पर मुरेठा बांधते हैं तथा कलाई में चांदी का चूड़ा, गले में मोहर व कान में बूंदा पहनते हैं। स्त्रियां आठ गजी साड़ी घुटनों तक कांछ लगाकर पहनती हैं। चुरिया, जुरिया, चुटकी, तोड़ा, पैरी, सतुवा, हमेल, तरकी बारी व टिकुसी आदि गहने इनको खूब भाते हैं।
आदिवासी घास-फूस की झोंपड़ी तथा लकड़ी, बांस और खपरैल के बने घरों में रहते हैं। गोबर-माटी के बने झोंपड़ों के दो हिस्सों में से आधे में इनकी गृहस्थी और शेष में गाय-बैल के ठांण होते हैं। घरू संपत्ति के नाम पर नाज के लिए मिट्टी का कोठा, मिट्टी के एक-दो मटके, माटी का चूल्हा, माटी का तवा, एक घटी और सिलबट्टा, बाप के समय के दो-एक गूदड़े, पशु चारे के लिए खूजर की एक टोकरी तथा खूंटी पर टंगा तीरकमान। बगड़ में दो-चार मुर्गे-मुर्गियां एवं इक्का-दुक्का बकरियां तथा खेती के लिए पांच-सात बीघा जमीन और दो बैल। आजीविका का आधार आदिम खेती है। लोग मेहनतकश हैं। कोदो, कुटकी, रागी, मड़िया, धान, ज्वार, तूअर, उड़द, मूंग, कुलथी, धान, बेलिया, खेसरी व तिलहनी फसलें उगाते हैं। जिनके पास जमीन नहीं, वे हरवाही, वनोपज संग्रह एवं मजदूरी करते हैं। तेंदूपत्ता, अचार, हर्र, बहेड़ा, आंवला, महुआ, सालबीज व भोहलादून पत्ता वनोपज में शामिल हैं। शिकार के शौकीन हैं। छोटे पशु-पक्षियों व मछलियों को पकड़ते हैं। ये जंगलों के बिना जिंदा नहीं रह सकते। पेज, कोदो, कुटकी, सांवा, मक्की, तिवड़ा, तिल्ली, बेर, मकोई (रसभरी), इमली के पत्ते व पेड़ों की छाल इनका प्रिय भोजन है। महुआ इनके लिए देव अन्न है। इनका कोई भी सामाजिक अनुष्ठान महुआ की सीडू (दारू) के बिना शुरू नहीं होता। मांस व कंदमूल भी खाते हैं। जंगली फल-फूल इन्हें खूब पसंद हैं। गीत-संगीत, नृत्य, वाद्य से इनका रोजाना का नाता है। जड़ी-बूटियों का इन्हें अच्छा ज्ञान है। पुत्र-पुत्री को समभाव से देखते हैं। प्रकृति-पूजक होने के कारण शेर को जीता-जागता देवता समझते हैं। शेरों ने अनेक आदिवासियों को अपना ग्रास बनाया है। किंतु किसी आदिवासी ने कभी शेर का शिकार नहीं किया। वन देवी को देवी अरण्यानी के रूप में पूजते हैं। वृक्षों को अपना समा सहोदा समझते हैं। हरे वृक्ष पर कुल्हाड़ी नहीं चलाते। वनों से उतना लेते हैं जितनी इनकी जरूरत है।
किसानों और आदिवासियों का विस्थापन हमारे यहां बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पनबिजली हेतु जीवनदायिनी नदियों पर विशालकाय बांध बनाने के साथ शुरू हुआ था, जो अब भी अबाध गति से जारी है। देश के लाखों आदिवासी विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। जंगली जानवरों की सुरक्षा के लिए वर्ष 1955 ई. में सर्वप्रथम कान्हा राष्ट्रीय उद्यान (म.प्र.) संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया था। कान्हा से आदिवासियों के 44 गांव हटाये गये थे। सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान 1427 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। वन अधिकारियों की बात को सच मानें तो उस उद्यान में 23 शेर मौजूद हैं। किंतु यह आंकड़ा विश्वसनीय नहीं है। पर्यटकों को यहां इक्का-दुक्का गौर एवं चीतल ही नजर आते हैं। शेर कई साल से दिखायी नहीं पड़े। यह उद्यान मढई, पंचमढी एवं बोरी नामक तीन भागों में विभाजित हैं। इसके दायरे में आदिवासियों के 150 से ज्यादा गांव हैं। फिलहाल यहां से 23 गांवों का विस्थापन होना है। इससे पहले भी कई गांव विस्थापित हो चुक हैं। वर्ष 1972 में सर्वप्रथम मढई गांव (त. सोहागपुर) को यहां से हटाया गया था। इसके बाद गांव धांई एवं बोरी का पुनर्वास किया गया। धांई के 91 और बोरी के 117 विस्थापितों को एक-एक मकान, 5-5 एकड़ कृषि, एक-एक ट्यूबवैल एवं कुछ पैसे दिये। दोनों गांवों के लिए दो तालाब भी खुदवाए। इसके बाद पट्टन, बदकछार, चूरना, कांकरी, खापा, नांदेर, धार, परदास, कूकरा व नांदकोट नाम के दस गांवों को उठाया गया। साकोट, नीमधान, सोनपुर, जाम, आलमोत, शेरीघाट, धोगरी खेड़ा, खकरापुरा, डांगपुरा व सिद्धपुर नाम के दसेेक और गांव भी हालिया दिनों में हटाये गये हैं। ये सब गांव होशंगाबाद जि़ले के हैं। कांजीघाट, घोड़नार एवं झेला गांव भी विस्थापन के पड़ाव पर हैं। धांई, बोरी और साकोट के सिवाय बाकी के 22 गांवों के आदिवासियों के साथ वन विभाग ने दोगला व्यवहार किया है। इन गांवों के जो बाशिंदे 18 साल से ऊपर हैं, उनके खाते में दस-दस लाख रुपये डालकर वन विभाग ने पल्ला झाड़ लिया है। आदिवासियों को तमाम इंतजाम इसी पैसे से करने हैं। वनों से उजड़े आदिवासी जीवन चलाने का कोई दूसरा हुनर अथवा धंधा नहीं जानते। विस्थापन ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। जो अफसर, नौकरशाह और नेता इन्हें उजाड़ रहे हैं, उनका जल, जंगल और जमीन पर कोई अधिकार नहीं है। आजाद भारत के दिल्ली में बैठे योजनाकारों ने विकास अथवा जानवरों के संरक्षण के नाम पर सुनियोजित ढंग से जंगल और जमीन से जुड़े किसानों व आदिवासियों को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है। सोहागपुर वासी डॉ. गोपाल नारायण आवटे (साहित्यकार व समाजसेवी) कहते हैं—आदिवासियों के वोट से मंत्री और मुख्यमंत्री बनने वाले लोग ही आदिवासियों को उजाड़ रहे हैं। इन लोगों के साथ जो हो रहा है उसे देख-सुनकर कलेजा छलनी हो रहा है। जंगलों को चोर काट रहे हैं। शेरों को दांत, खाल वह हड्डियों की तस्करी करने वाले मार रहे हैं। घर से बेघर आदिवासियों को किया जा रहा है। यह कहां का न्याय है? एक सदी पहले तक मध्य क्षेत्र के तमाम वन्यांचलों पर आदिवासियों का अधिकार रहा है। इनके पुरखे स्वयं को जंगल का सर्वेसर्वा मानते आये हैं। इनके बडेरूओं के समय देश में सर्वाधिक शेर थे। हमें कोई हक नहीं कि हम शेरों को बचाने के नाम पर वनवासियों के मुक्त एव उल्लासमय अस्तित्व को नष्ट करें। यदि जंगलों की कटाई का यही क्रम जारी रहा और कृषि भूमि पर अमीर घरानों का कब्जा यूं ही होता रहा तो गरीबों की सारी जमीन और जंगल एक दिन पूंजीपति खरीद लेंगे। किसानों और आदिवासियों के सम्मान की खातिर जल, जंगल, जमीन जैसी जीवन की मूलभूत चीजों को बेचने और खरीदने पर रोक लगा दी जानी चाहिए।
विस्थापन से हारी वनदेवी
मध्य क्षेत्र के आदिवासी अंचलों की समूची अर्थव्यवस्था आदिवासी स्त्रियों की पीठ पर टिकी है। आदिवासी स्त्रियां आठ पहर चौंसठ घड़ी घर-आंगन, खेत-खलिहान और वन-वनांतर में ऐड़ी-चोटी का पसीना एक करती हैं। खेती, पशुपालन और घर-बाहर के कामों में ये सदैव मर्दों से आगे रहती हैं। खेतों की जुताई, बुवाई से लेकर फसलों की सिंचाई, निराई-गुड़ाई, कटाई व मड़ाई आदि के तमाम काम ये बिना आधुनिक उपकरणों के निपटाती हैं। ईंधन के लिए लकड़ी बटोरने, महुआ और चिरौंजी बीनने, खकरा (पलाश) एवं तेंदू के पत्ते एकत्र करने, पेयजल लाने और पशुओं के चारे-दाने की टोह में आदिवासी औरतों को रोजाना ऊबड़-खाबड़ खेतों, वनों, कछारों व पथरीले पहाड़ों में मीलों भटकना पड़ता है। ये खड्ड-खाई में गिरकर चोट खाती हैं। पेड़ के ऊपर से फिसलकर मरती हैं व जंगली जानवरों का शिकार होती हैं। खरसा हो या चौमासा, जाड़ा हो या पाला, दिन हो अथवा रात, आदिवासी स्त्रियां आराम की नीयत से कदापि घर पर नहीं बैठतीं। ये बचपन से किशोरवय तक पितृ गृह में और बाद में मरते दम तक पति गृह में कमरतोड़ मेहनत करती हैं। परिवार के भरण-पोषण के अलावा बच्चों के लालन-पालन का दायित्व निभाती हैं। हारी-बीमारी, तंगहाली और कष्टमय परिस्थितियों में भी हंसकर जीवन बिताती है। नाचती हैं। गाती हैं। कन्या जन्म पर ढोल बजाती हैं व पुत्री को देवी की तरह पूजती हैं। वैवाहिक अवसरों पर बेटियों की इच्छा एवं रुचि को प्राथमिकता देती हैं। अनपढ़, असभ्य और पिछड़ी कही जाने वाली ये स्त्रियां तथाकथित पढ़ी-लिखी एवं सभ्य महिलाओं से कई गुना अधिक सुंदर और सभ्य हैं। न दहेज देती हैं, न दहेज लेती हैं। विषम परिस्थितियों में अपने हंसिए और कुल्हाड़ी से आततायियों का खात्मा कर देती हैं। अपने हाथों से लकड़ी, बांस, टाट, सिर की और गारा के झोंपड़ीनुमा घरों का निर्माण करती हैं। कंद-मूल-फल को मोहन भोग समझती हैं। अपने खेतों, जंगलों, पहाड़ों एवं अपनी फसलों तथा नदियों से अथाह प्रेम करती हैं। खकरा के पत्तों से दोना, पत्तल, बांस से चटाई तथा खजूर से झाड़ू और पंखे बनाती हैं। किंतु जब से इन्हें जबरदस्ती इनकी मिल्कीयत (जल, जंगल, जमीन) से खदेड़ा गया है तब से इन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि और भूकंप की मार तो ये किसी तरह सह लेती थीं किंतु विस्थापन की पीड़ा ने इनके पहाड़ से धीरज को चकनाचूर कर डाला है।