नोएडा पुलिस ने हाल ही में एक दवा निर्माता उद्योग के तीन कर्मियों को मिलावटी दवा बनाने और बेचने के आरोप में गिरफ्तार किया है। यह गिरफ्तारी उज़बेकिस्तान में खांसी की दवा पीने से 18 बच्चों की मौत होने के सिलसिले में थी, जिसका उत्पादन उपरोक्त कंपनी ने किया था। इसके कुछ महीने पहले ही, हरियाणा की एक कंपनी भी ठीक इसी किस्म के विवाद में घिरी थी, जब गाम्बिया नामक देश में 60 से अधिक बच्चे इसकी बनाई खांसी की दवा पीकर मर गए थे, इन दोनों खांसी की दवाओं में जहरीले तत्व पाए गए।
गाम्बिया की मौतों का संज्ञान सबसे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लिया था और इस सप्ताह अमेरिका के दवा नियंत्रण केंद्र ने पुनः पुष्टि की है कि यह मौतें भारत से गई दवा में मौजूद डाइइथाइलिन ग्लाइकॉल (डीईजी) से बच्चों के गुर्दों को पहुंचे गंभीर नुकसान की वजह से हुई हैं।
इस पर, संबंधित भारतीय प्रशासनिक प्रतिष्ठान यानी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय, केंद्रीय दवा मानक नियंत्रण संगठन, राज्यों के दवा नियंत्रण विभाग और दवा विभाग की प्रतिक्रिया अजीबोगरीब रही। वे उलटा विश्व स्वास्थ्य संगठन और गाम्बिया स्वास्थ्य मंत्रालय के बयानों में छिपे छिद्रों को भुनाने लगे। इन दोनों देशों की कही बातों का संज्ञान लेकर पड़ताल करने की बजाय केंद्रीय प्रशासनिक संगठन ने अपनी एक कमेटी बनाई, जिसने विश्व स्वास्थ्य संगठन पर जानकारी साझा न करने का इल्जाम लगाया। स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह कहते हुए गाम्बिया पर जिम्मेवारी थोप दी कि बाजार में इस्तेमाल के लिए उतारने से पहले दवाओं की जांच-पड़ताल का जिम्मा आयातक देशों का होता है। इसने यह भी कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘व्यक्ति से व्यक्ति स्तर पर मौतों के बारे में सटीक अनौपचारिक जानकारी’ मुहैया नहीं करवायी।
बाद में पता चला कि गाम्बिया ने कुछ बच्चों का शव-परीक्षण किया और उसमें डाइइथाइलिन ग्लाइकॉल पाया गया। इतना काफी न था कि स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया, जिनके पास रसायन एवं उर्वरक विभाग भी हैं और जिसके तहत दवा विभाग काम करता है, उन्होंने ऐसे इल्जामों को भारत के दवा उद्योगों की छवि बिगाड़ने की साजिश करार दिया। 24 फरवरी को 100 ‘साझेदार’ देशों के राजनयिकों के साथ हुई बैठक में मांडविया ने पुनः भारतीय दवा कंपनियों द्वारा सिर्फ अच्छी गुणवत्ता की दवाएं बनाने की बात दोहराई।
यह बयानबाजी लोगों में अपनी साख बनाए रखने का आभास देती है। 26 फरवरी को हैदराबाद में केंद्रीय एवं राज्य दवा प्रशासन विभागों की कथित बंद-कमरा बैठक में मांडविया ने भारत में दवा निर्माता उद्योग की शोचनीय हालत को कुबूल किया है। उन्होंने माना कि बहुत-सी घटिया दवाएं घरेलू बाजार में प्रचलित हैं। बहुत-सी नकली दवाएं निर्यात भी होती हैं और इनकी वजह से हमारे मुल्क के दवा निर्माता उद्योग पर सवाल उठते हैं। इस तरह के हालातों पर मंत्री ने अधिकारियों से कहा, ‘दवा उद्योग बेशक जिम्मेवारी से काम कर रहा है, लेकिन इसकी पालना करना हमारा कर्तव्य है’।
जहां तक नियामक तंत्र की बात है, उन्होंने कहा, ‘यह चाक-चौबंद नहीं है और राज्य एवं केंद्रीय नियामक के बीच यथेष्ट तालमेल नहीं हैं।’ मंत्री के अनुसार, मौजूदा दवा नियामक व्यवस्था, केंद्रीय एवं राज्य प्राधिकरण, केंद्रीय दवा नियामक और दवा विभाग के बीच बंटी हुई है। मांडविया के इस संबोधन का लाइव प्रसारण उनके आधिकारिक यू-ट्यूब चैनल पर लगभग 8 मिनट चलाने के बाद बीच में बंद कर दिया गया और जल्द ही संबंधित सामग्री हटा दी गई।
बेशक स्वास्थ्य मंत्रालय ने पब्लिक डोमेन से यह वीडियो हटा दी हो, लेकिन ‘बिल्ली थैले से बाहर आ चुकी है।’ मांडविया का बयान विशेषज्ञों और सिविल सोसायटी द्वारा लंबे समय से लगाए जा रहे इल्जामों की तस्दीक करता है कि लचर दवा नियामक की वजह से भारतीय बाजार में घटिया, छद्म और नकली दवाएं बिकती हैं। मांडविया का बयान इस बात की भी पुष्टि करता है कि इस किस्म की दवाएं अन्य देशों को निर्यात होती हैं और नागवार घटनाओं की जिम्मेवार हैं, जैसा कि गाम्बिया, उज़बेकिस्तान और विगत में अन्य कई मामलों मे देखने को मिला।
मंत्री का संबोधन यह भी दर्शाता है कि वे चेताने वाले समूहों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के संशयों से सहमत हैं कि कमजोर नियामक व्यवस्था और जिम्मेवारी कई जगह बंटी हुई है और इसको दुरुस्त करने की जरूरत है। यदि मंत्री को पता है कि दवा नियामक का कामकाज इतना खराब है, तब वे खुद या सरकार कुछ करती क्यों नहीं? इसकी बजाय, जब भी गाम्बिया या उज़बेकिस्तान जैसी घटनाएं होती हैं तो क्योंकर वे सार्वजनिक तौर पर नियामक तंत्र और दवा उद्योग को ढांपने लग जाते हैं? अब जबकि हम जान गए हैं कि वे खुद व्यवस्था के बारे में क्या सोचते हैं तो उन्हें दोहरी बातें करना बंद करना चाहिए क्योंकि दवाओं की खराब गुणवत्ता का सीधा संबंध लोगों की जिंदगी से है।
नि:संदेह नियामक तंत्र में सड़न-गलन नई नहीं है। 2012 में, एक संसदीय कमेटी ने केंद्रीय दवा मानक नियंत्रण संगठन के कामकाज की जांच के बाद केंद्रीय और राज्य स्तर पर दवा नियामक विभाग के स्याह पहलू का रहस्योद्घाटन किया था। इसके बावजूद स्थितियां ज्यादा नहीं बदलीं और इस कमेटी की सिफारशों पर अमल के लिए बनाई उप-समितियों के बावजूद अधिकांश हिदायतें कागज़ों तक रह गईं। एक के बाद एक आई सरकारों ने भी व्यवस्था में सुधार के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। वहीं दूसरी ओर, नियामक विभाग को अक्सर दवा कंपनियों की तरक्की और काम-धंधे में आसानी बनाने में अड़ंगा डालने वाले दफ्तर की तरह देखा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि हमारा दवा उद्योग व्यापार 4 लाख करोड़ रुपये का है और यह 10 लाख करोड़ रुपये तक पहंुचने की गुंजाइश रखता है। यही ध्येय होना भी चाहिए, लेकिन यह दवा की सुरक्षा, प्रभावशीलता और मानक से समझौता करके न हो, बाजार चाहे घरेलू हो या विदेशी।
यदि सरकार का निशाना है कि सबके लिए वहनयोग्य और प्रभावशील दवाइयां उपलब्ध हों, तो इसके लिए मानवीय सोच और तौर-तरीके अपनाने की जरूरत है। आज, बाजार एक ही मॉलिक्यूल के नाना प्रकार के ब्रांडों से पटा पड़ा है, सबकी कीमत और प्रभावशीलता अलग-अलग है। बहुत से अतार्किक युग्म-दवा वाले टोटके भी प्रचलन में हैं। चूंकि सैकड़ों ब्रांड हैं, सो कंपनियां अपने उत्पाद की अनैतिक खरीद बनाने के लिए चिकित्सकों को लुभाती हैं।
जब तक कि उचित आपूर्ति शृंखला का इंतजाम न हो तब तक कुछ हजार जन-औषधि केंद्र खोलने से अधिक फर्क नहीं पड़ने वाला। ऐसे केंद्र बनाने का मूल विचार रामविलास पासवान का था, जिन्होंने यूपीए सरकार में बतौर रसायन एवं खाद मंत्री रहते हुए वर्ष 2005 में पहली बार यह योजना बनाई थी। इसके तहत जेनेरिक दवाओं की सप्लाई केंद्रीय एवं राज्यों के सार्वजनिक दवा उपक्रमों से की जानी थी। इनमें अधिकांश अब खुद ‘बीमारू’ हैं या फिर बंद हो चुके हैं। इसलिए, काम कई मोर्चों पर करना होगा, जिसकी शुरुआत नियामक व्यवस्था को प्रभावशील और जिम्मेवार बनाकर हो।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।