देविंदर शर्मा
हाल ही में सरकार के तीन अध्यादेशों की घोषणा को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने ऐतिहासिक करार दिया। इन अध्यादेशों से मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से में भी उत्साह की भावना भर गई। एक शीर्षक कहता है, ‘अब, अंततः किसान सांस ले सकते हैं।’ लंबे समय से लंबित कृषि सुधारों को सलाम करते हुए एक अन्य समाचार पत्र ने लिखा, ‘किसी भी किसान को, कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता ने उसे मंडियों के चंगुल से मुक्त कर दिया।’
अंततः केंद्र सरकार के फैसले पर खुशी जताई जा रही है। ज्यादातर शहरी जो बिना सोचे-समझे किसानों को परिभाषित करते हैं, का मानना है कि किसान बिचौलियों के पंजे से मुक्त हो गया है। धोती-कुर्ता पहनने वाले व्यापारी बहुत साक्षर नहीं हैं, लेकिन अपने दिन-प्रतिदिन के लेनदेन में बहुत ही चतुर खिलाड़ी हैं। इन्हें अक्सर बॉलीवुड फिल्मों में एक साइड विलेन के रूप में चित्रित किया गया। केवल फिल्में ही नहीं, पाठ्य पुस्तकों ने भी उन्हें विकास की कहानी के खलनायक के रूप में चित्रित किया है। यह वह छवि है जो हमारी सोच में अंतर्निहित हो गई है।
चाहे उसे आढ़ती, साहूकार या बिचैलिया के नाम से पुकारो, वह प्रायः धोती-कुर्ता या कुर्ता-पायजामा पहने होता है। हालांकि, वेबस्टर शब्दकोश बिचौलिये को निर्माता और उपभोक्ता के बीच एक व्यापारी के रूप में वर्णित करता है। लेकिन अमूमन उसके प्रति नकारात्मक धारणा है जो उसे एक ग्रे चरित्र की तरह चित्रित करता है। यह सच से परे है। एग्रीटेक सलाहकार एवं ब्लाॅगर वेंकी रामचंद्रन द्वारा शायद उद्देश्य के करीब एक परिभाषा दी गई है, ‘बिचौलिये किसानों को अावश्यकता पड़ने पर ऋण मुहैया करवाते हैं। प्रासंगिक संबंध-आधारित समझ और फसल चक्र संबंधित सलाह भी देते हैं।’ वास्तव में ये संबंध ऋण और इनपुट देने से कहीं आगे बिक्री के बाद बची फसल के इस्तेमाल व पारिवारिक आपात स्थितियों में बहुत जरूरी सहायता करने तक विस्तृत हैं।
फिर भी शिक्षित पारंपरिक रूप से कपड़े पहने बिचौलिए से घृणा करते हैं। जबकि जो टाई और सूट में तैयार होते हैं, उनके पास एक बिचौलियेपन को लेकर ऐसी कोई योग्यता नहीं है। एक बिचौलिये की भूमिका के लिए क्या पोशाक निर्धारित है और पसंद-नापसंद क्या है, मनोवैज्ञानिकों के लिए पता लगाने जैसा इसमें कुछ नहीं है लेकिन शायद स्थानीय आढ़तियों के प्रति तिरस्कार मौजूदा पीढ़ी को बदलने के काम आता है। फिर भी पारंपरिक कपड़े पहनने वाले बिचौलियों से शिक्षित नफरत करते हैं जबकि उनके पास ऐसा कोई गुण नहीं जो टाई-सूट पहनने वालों में होता है।
लिखने व फोन पर सलाह देने वाले बहुत बातूनी, उच्च शिक्षित जो लोग किसान और उपभोक्ता के बीच अंतर को पाटने के लिए बिचौलिये को बाहर निकालने का रास्ता दिखाते हैं लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि वे अलग नया क्या कर रहे हैं तो वे पीछे मुड़कर नहीं देखते।
उदाहरण के लिए, कृषि इनपुट बाजार के लिए डिजिटल तकनीक का उपयोग करने वाला एक स्टार्ट-अप सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए एक बिचौलिया है। सच यह है कि वे तकनीकी और प्रायः एप आधारित तकनीकी समाधान का इस्तेमाल करते हैं। वे फुटकर विक्रेता से मामूली अलग हो सकते हैं लेकिन अंततः मुख्य रूप से किसानों को कृषि इनपुट्स कमीशन पर बेचने का प्रयास करते हैं। उनमें से ज्यादातर समय की जरूरतों को पूरा करने पेस्टीसाइड्स, उर्वरक आदि बेचने के लिए मौसम आधारित सलाह का उपयोग करते हैं।
किसी स्थिति में जो एल्गोरिदम स्टार्ट-अप का उपयोग कर रहा है और वह बड़े खुदरा विक्रेताओं या छोटे उद्यमों के लिए सही हो सकता है लेकिन अंत में यह प्रयास मार्जिन को कम करने और मुनाफे को बढ़ाने के लिए ही है। फिर स्टार्ट-अप की यह श्रेणी है जो खेत से भुगतान तक की श्रृंखला में मध्यस्थ के रूप में सेवा देने के लिए प्रसिद्ध होने का दावा करती है। उनमें से अधिकांश सब्जी और बागवानी आपूर्ति श्रृंखलाओं में काम करते हैं, उपभोक्ताओं को ताजे फल और सब्जियों की सीधी डिलीवरी के साथ।
उत्तम रूप में इन मध्यवर्ती संस्थाओं को विनम्र स्ट्रीट वेंडर्स और पड़ोस के खुदरा सब्जी दुकानदार की जगह बिचौलियों के तौर पर बदली जाने वाली नई पीढ़ी कहा जा सकता है। समय ही बताएगा कि किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के वादे के अनुसार किसानों को अधिक लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है, और क्या वे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलवा पाना सुनिश्चित कर पाएंगे। हमें महाराष्ट्र में दो एफपीओ के बारे में पता है, जिन्होंने न्यूनतम बिक्री मूल्य पर किसानों से चना खरीदा और घाटे में चले गए। हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि स्टार्ट-अप और एफपीओ की स्थापना के पीछे का उद्देश्य सराहनीय है। लेकिन कृषि में नई तकनीक लाने का दावा करते हुए यह चुनौती बनी हुई है कि उच्च मूल्य कैसे प्रदान किया जाए।
मूंग का मामला लीजिए। 2020-21 के विपणन सीजन के लिए मूंग का न्यूनतम बिक्री मूल्य 7 हजार 196 रुपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया हुआ है। मध्य प्रदेश के बाजारों में औसत बाजार मूल्य 4,000 रुपये से 4,500 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। 4,500 रुपये से अधिक की किसी भी कीमत को उच्च मूल्य कहा जाएगा। लेकिन क्या बिचौलियों की नई पीढ़ी यह सुनिश्चित कर पाएगी कि मूंग किसानों को एमएसपी के अनुसार भुगतान किया जाए? यदि नहीं, तो मंडी में बैठे आढ़तियों को दोष क्यों दें?
कहीं भी, किसी को भी बेचने की आजादी का उत्साह अब खत्म होता दिख रहा है। यदि एमएसपी एक बेहतर मूल्य तलाश के रास्ते में आ रहा है तो राष्ट्रीय सैंपल सर्वे कार्यालय (एनएसएसओ) की 70वीं राउंड रिपोर्ट ने दिखाया कि जुलाई 2012 और जून 2013 के बीच गन्ने को छोड़कर अधिकांश कृषि उत्पाद स्थानीय निजी व्यापारियों को बेचे गये और बहुत कम हिस्सा सरकारी व सहकारी एजेंसी को बेचा गया। उदाहरण के लिए वर्ष 2013 के रबी विपणन सीजन में 79 प्रतिशत मूंग निजी व्यापारियों, मंडी में 18 प्रतिशत और सरकारी एजेंसी को केवल तीन प्रतिशत ही बेची गई। इसी तरह, 64 प्रतिशत धान निजी व्यापारियों, 17 प्रतिशत मंडी और केवल छह प्रतिशत सरकारी एजेंसी को बेचा गया। क्या निजी व्यापारियों ने उन्हें अधिक कीमत की पेशकश की? नहीं।
यदि बड़ा हिस्सा निजी थोक व्यापारियों को बेचा जा रहा था और वो भी मंडी के बाहर, जैसा कि नेशनल सैंपल सर्वे आॅफिस की रिपोर्ट बताती है तो इसका मतलब है कि किसी को भी, कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता पहले से ही है। मैंने बार-बार कहा कि केवल छह प्रतिशत किसानों को ही अधिकतम बिक्री मूल्य का लाभ मिलता है जबकि शेष 94 प्रतिशत बाजारों पर निर्भर हैं। इसलिए सवाल यह नहीं है कि किसान आढ़तियों को बेचता है या बिचौलियों की नई पीढ़ी को लेकिन यह सच्ची स्वतंत्रता नहीं है। सबसे बड़ा सुधार तब होगा जब किसानों को न्यूनतम बिक्री मूल्य से अधिक पर कहीं भी, किसी को भी बेचने की आजादी मिले।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।