मुकुल व्यास
कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए कुछ वैक्सीन बन चुकी हैं और बहुत सी विकास के विभिन्न चरणों से गुजर रही हैं। कुछ देशों ने कोविड वैक्सीनों के आपातकालीन इस्तेमाल की मंजूरी भी दे दी है। लेकिन टीका लगने के बाद इनके इम्यून रेस्पांस को लेकर चिंता बनी हुई है। कोरोना वायरस के नये स्ट्रेन प्रकट होने से वैज्ञानिकों और वैक्सीन निर्माताओं का सिरदर्द बढ़ गया है। इस समय वैक्सीनों के विकास के लिए अलग-अलग विधियां अपनाई जा रही हैं। इनके प्रयोग में लाभ भी हैं और दिक्कतें भी हैं। इसके अलावा जो वैक्सीन एमआरएनए मॉलिक्यूल्स पर आधारित हैं उनके स्टोरेज और ट्रांसपोर्ट के लिए बहुत ही निम्न तापमान की आवश्यकता पड़ती है। इस तरह की परिस्थितियां हर जगह और हर समय बनाए रखना संभव नहीं है। दुनिया के कई देशों में वैक्सीन की जरूरत सबसे ज्यादा है लेकिन ऐसी जगहों पर इस तरह की वैक्सीन पहुंचाना बहुत ही दुष्कर कार्य है। अतः कोविड की रोकथाम के लिए अतिरिक्त वैक्सीनें विकसित करना बहुत जरूरी है। वैक्सीन बनाने के लिए वैज्ञानिक पारंपरिक विधियों के अलावा नई तकनीकें भी अपना रहे हैं जिनमें डीएनए वैक्सीन टेक्नोलॉजी भी शामिल है।
टीकाकरण के जरिए मुख्यतः इम्यून सिस्टम को किसी संक्रामक वायरस या बैक्टीरिया अथवा उनके हिस्सों से उत्प्रेरित किया जाता है। इस संक्रामक रोगाणु को कुछ इस प्रकार संशोधित किया जाता है कि मेजबान को उससे कोई हानि न हो लेकिन जब उसका सामना संक्रामक रोगाणु से हो तो वह उसे तुरंत निष्प्रभावी कर दे। पिछले सौ वर्षों से वैक्सीन के विकास के लिए यही तरीका अपनाया जा रहा है। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने टीकाकरण के लिए एक नई तकनीक विकसित की है। इस तकनीक को डीएनए वैक्सीन प्लेटफार्म कहा जाता है। इस तकनीक में वायरस या बैक्टीरिया के जीन का उपयोग किया जाता है। जब किसी मरीज को डीएनए वैक्सीन लगाई जाती है उसकी कोशिकाओं की मशीनरी वायरस या बैक्टीरिया का प्रोटीन बनाने लगती है। मरीज का इम्यून सिस्टम तुरंत समझ जाता है कि यह कोई बाहरी तत्व है। भविष्य में जब कोई ऐसा ही वायरस या बैक्टीरिया शरीर पर हमला करेगा तो शरीर का इम्यून सिस्टम उसे पहचान कर इम्यून रेस्पांस उत्पन्न करेगा।
स्वीडन के करोलिंस्का इंस्टीट्यूट के रिसर्चरों ने कोविड के खिलाफ एक नई प्रोटोटाइप वैक्सीन विकसित की है, जिसमे डीएनए आधारित विधि अपनाई गई है। यह विधि सस्ती और टिकाऊ है। इस वैक्सीन का उत्पादन आसानी से किया जा सकता है और इस्तेमाल करने में यह सेफ भी है। साइंटिफिक रिपोर्ट्स पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि यह वैक्सीन चूहों में तगड़ा इम्यून रेस्पांस उत्पन्न करने में कामयाब रही है। इस वैक्सीन का नाम ड्रेप-एस रखा गया है। इस वैक्सीन में कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन के जीन को सम्मिलित किया गया है। वैक्सीन के प्रभाव से उत्पन्न एंटीबॉडीज कोरोना वायरस को पूरी तरह से निष्प्रभावी कर देती हैं। डीएनए प्लेटफॉर्म का उपयोग कई वैक्सीनों के विकास के लिए किया जा चुका है। इबोला, एड्स और चिकनगुनिया जैसे अति संक्रामक रोगों के इलाज के लिए इनके क्लिनिकल ट्रायल चल रहे हैं। रिसर्चरों का कहना है कि नई विधि से तैयार वैक्सीन का एक बड़ा फायदा यह है कि इसे कम डोज में दिया जा सकता है और इसके साइड इफेक्ट भी बहुत ही हल्की किस्म के होंगे। इसके दो बड़े लाभ यह हैं कि स्टोरेज और ट्रांसपोर्ट में कोल्ड चेन की जरूरत नहीं पड़ती तथा वायरस के नए वेरियंट्स या किस्मों के खिलाफ भी इनका प्रयोग किया जा सकता है।
इस बीच, वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि कोरोना वायरस संक्रमण के बाद व्यक्तियों पर अलग-अलग ढंग से असर क्यों करता है। कुछ लोगों में बहुत मामूली से लक्षण दिखाई देते हैं और कुछ लोगों में कोई लक्षण नहीं दिखता जबकि कुछ व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार हो जाते हैं। अब जापान में ओकिनावा की साइंस एंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी (ओआईएसटी) और जर्मनी के मैक्स प्लांक इवोलुशनरी बायोलॉजी इंस्टीट्यूट के रिसर्चरों ने एक नए अध्ययन में पता लगाया है कि जीनों का एक समूह व्यक्ति के कोविड से गंभीर रूप से बीमार पड़ने के चांस 20 प्रतिशत कम कर देता है। जीनों का यह समूह हमें विलुप्त हो चुके नियंडरथाल मानव से विरासत में मिला है। नियंडरथाल आदि मानव की एक प्रजाति थी जो करीब 40000 वर्ष पहले यूरेशिया (यूरोप और एशिया) में रहती थी। समझा जाता है कि जलवायु परिवर्तन और बीमारियों की वजह से ये आदि मानव विलुप्त हो गए। ओकिनावा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्वांते पाबो ने कहा कि यह बात सही है कि व्यक्ति में पहले से मौजूद डायबिटीज और दूसरी बीमारियों की वजह से कोविड गंभीर रूप ले सकता है। लेकिन इसके साथ ही आनुवंशिक कारण भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इनमें से कुछ कारणों में नियंडरथाल मानवों का भी योगदान है।
पिछले साल स्वांते पाबो और उनके सहयोगी, प्रोफेसर ह्यूगो जेबर्ग ने नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा था कि कोविड के गंभीर रूप धारण करने के पीछे भी एक बड़ा आनुवंशिक कारण है, जिसमें नियंडरथाल मानवों का योगदान है। इस आनुवंशिक कारण की वजह से कोविड से गंभीर रूप से बीमार पड़ने का रिस्क दोगुना हो जाता है। पिछले ही साल दिसंबर में ब्रिटेन में कोविड से बीमार पड़ने वाले 2244 लोगों के आनुवंशिक नमूने एकत्र किए गए थे। ब्रिटिश अध्ययन में चार क्रोमोसोम (गुणसूत्र) पर कुछ अतिरिक्त आनुवंशिक क्षेत्रों की पहचान की गई थी जो यह निर्धारित करते हैं कि अमुक व्यक्ति पर कोविड का क्या प्रभाव पड़ेगा। अब पीनास पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन में प्रो. पाबो और उनके सहयोगी प्रो. जेबर्ग ने दर्शाया है कि क्रोमोसोम पर पहचाने गए क्षेत्रों में एक क्षेत्र में एक ऐसा जीन मौजूद है जो तीन नियंडरथाल मानवों से मौजूद जीन के समान है। इनमें से एक आदि मानव के जीवाश्म 50000 वर्ष पुराने हैं जो क्रोएशिया से मिले थे। दूसरे और तीसरे आदि मानव के जीवाश्म दक्षिणी साइबेरिया से मिले थे। ये क्रमशः 70000 और 120000 वर्ष पुराने हैं। आश्चर्य की बात है कि दूसरा आनुवंशिक कारण पहले आनुवंशिक कारण की तुलना में कोविड पर विपरीत असर करता है। यह जीन कोविड की तीव्रता का रिस्क बढ़ाने के बजाय सुरक्षा प्रदान करता है। यह जीन क्रोमोसोम 12 पर स्थित है। यह कोविड के रोगी के आईसीयू में जाने के रिस्क को 22 प्रतिशत कम करता है। प्रो. पाबो ने कहा कि यह सचमुच आश्चर्यजनक बात है कि नियंडरथाल मानवों को लुप्त हुए 40000 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन उनका इम्यून सिस्टम आज भी सकारात्मक और नकारात्मक ढंग से हमें प्रभावित कर रहा है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।