विजय सिंगल
किसी के प्रति श्रद्धा रखना आस्थावान होना है। इसी श्रद्धा से आप लक्ष्य प्राप्ति की ओर बढ़ते हैं, लेकिन श्रद्धा या जिसे कई अन्य नामों से भी हम जानते हैं, का रूप कैसा हो? असल में श्रद्धा किसी व्यक्ति की जीवन संबंधी मूल्य प्रणाली का प्रतीक है। यह एक अच्छे जीवन का दर्शन है। भगवान श्रीकृष्ण का भगवद्गीता में यह संदेश है कि जो भी लोग उनकी शिक्षाओं का पालन अगाध श्रद्धा के साथ तथा बिना किसी नुक्ताचीनी के करते हैं और तदनुसार अपने समस्त कार्यों को उन्हें (उस परमात्मा को) अर्पित कर देते हैं; वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। एक श्रद्धावान व्यक्ति इस प्रकार आत्मा की स्वतंत्रता को प्राप्त कर लेता है। भगवान श्रीकृष्ण का संदेश साफ है। शिक्षा को जानें, समझें और उसके प्रति आस्थावान बनें। श्रद्धा वह आंतरिक प्रकाश है जो शाश्वत सत्य की ओर इंगित करता है। यह वैसी शक्ति भी है जो मनुष्य को आध्यात्मिक पूर्णता की ओर बढ़ते हुए उस शाश्वत सत्य को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। श्रद्धा को आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा का मुख्य स्रोत भी कहा जा सकता है।
कर्म करने में व्यक्ति की अभिरुचियां एवं झुकाव तथा अपने सांसारिक और आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किए गए उसके प्रयास, उसकी मान्यताओं और आस्थाओं से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। जब किसी व्यक्ति की आंतरिक एवं बाहरी ऊर्जाएं एक उच्च लक्ष्य पूर्ति की ओर केंद्रित होती हैं, तब वह व्यक्ति सच्चा श्रद्धावान अर्थात आस्था से परिपूर्ण कहलाता है। इस प्रकार, श्रद्धा किसी व्यक्ति के मूल चरित्र एवं व्यवहार का निर्माण करती है। भगवद्गीता तो यहां तक कहती है कि किसी व्यक्ति की प्रकृति उसकी श्रद्धा के अनुरूप ही होती है। दूसरे शब्दों में, जिसकी जैसी आस्था है, वह वैसा ही है। असल में संस्कृत शब्द श्रद्धा का हिन्दी अनुवाद प्राय: आस्था के रूप में किया जाता है। यह शब्द मान्यता, निष्ठा, आदर, सम्मान और भक्तिभाव आदि को भी दर्शाता है। आम बोलचाल की भाषा में श्रद्धा का अर्थ किसी दैवीय सिद्धांत अथवा सर्वोच्च शक्ति में विश्वास के रूप में लिया जाता है। लेकिन इनमें से कोई भी वर्णन श्रद्धा की अवधारणा के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सकता। वास्तव में, श्रद्धा किसी में विश्वास के होने या किसी विचार की कोरी स्वीकृति से कहीं बढ़कर है। यह व्यक्ति का वह वैश्विक दृष्टिकोण है जो जीवन के उच्चतम उद्देश्य के इर्द-गिर्द घूमता है। यह तो वह भाव है जो किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की विशिष्टता को परिभाषित करता है। यह स्वयं को समझने एवं अन्य वस्तुओं, जीवों व घटनाओं के साथ एक सार्थक और उद्देश्यपूर्ण संबंध स्थापित करने का मार्ग है।
क्षमता पर पूर्ण विश्वास भी एक रूप
किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि उस लक्ष्य के अंतर्निहित विचार में व्यक्ति की पूर्ण आस्था हो। इस प्रकार, आध्यात्मिक पूर्णता के मार्ग में पहला कदम है उस ईश्वरीय शक्ति की दिव्य वास्तविकता में दृढ़ विश्वास विकसित करना, जोकि हर चीज में व्याप्त है और जो समस्त प्राणियों का आधार है। श्रद्धा व्यक्ति की वास्तविकता का अहसास और ब्रह्मांडीय वास्तविकता के साथ उसके संबंध को साकार करने का एक साधन है। श्रद्धा का अर्थ केवल ईश्वर में विश्वास रखना ही नहीं है, बल्कि उसे प्राप्त करने की अपनी क्षमता में पूर्ण विश्वास रखना भी है। इस प्रकार, श्रद्धा का तात्पर्य न केवल ईश्वर की शक्ति में यकीन रखने से है, बल्कि स्वयं अपनी आस्था पर भरोसे से भी है। सच्ची श्रद्धा मनुष्य को परमात्मा के साथ एकाकार होने के मार्ग पर अग्रसर होने में सहायक होती है। श्रद्धा में जितना अधिक कोई स्थापित होगा, उतना ही अधिक वह संशय और अविश्वास से मुक्त हो सकेगा।
अंधविश्वास से परे है यह…
आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा आवश्यक है। परन्तु श्रद्धा का आशय अंधविश्वास से नहीं है। किसी गुरु या किसी धर्मशास्त्र के उपदेश का बिना सोचे समझे अनुसरण करने के बजाय, श्रद्धा-सम्पन्न व्यक्ति सत्य को स्वयं जानना एवं अनुभव करना चाहता है। श्रद्धा व्यक्ति को ज्ञान के पथ पर कदम दर कदम आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है, और अंतत: गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों को समझने में सहायता करती है। जब मनुष्य दिव्य ईश्वरीय ज्ञान को निष्ठापूर्वक तथा पूर्ण आस्था के साथ खोजता है, तब वह उस ज्ञान को अपनी ही आत्मा में अनुभव कर लेता है। बौद्धिक ज्ञान के विपरीत, आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान सांख्यिकीय आंकड़ों या तर्कसम्मत निष्कर्षों के माध्यम से नहीं, अपितु आस्था एवं आत्म-संयम के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। सच्ची श्रद्धा मनुष्य को स्वयं की वास्तविकता में विकसित होने तथा आत्मा के परमानंद का रसास्वादन करने योग्य बनाती है। अपनी अपरिवर्तनशील एवं नित्य प्रकृति का आंतरिक रूप से अनुभव कर लेने के बाद व्यक्ति बाहरी दु:खों के बारे में चिंतित नहीं होता, क्योंकि वे सब तो अनित्य हैं तथा सदा के लिए नहीं रहते। सांसारिक भय व आशंकाओं पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है।
महत्वपूर्ण है आत्म-साक्षात्कार
अलग-अलग लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में ईश्वर को मानते हैं। व्यक्ति चाहे किसी भी दैवीय रूप की पूजा करे, जब तक उसकी आस्था दृढ़ है और पूजा निष्ठावान है, तब तक वह आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर निश्चय ही प्रगति करता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन से दैवीय रूप की पूजा की जा रही है, बल्कि महत्वपूर्ण है आस्था की दृढ़ता; क्योंकि ईश्वर के समस्त रूप उस एक परम सत्ता के ही विभिन्न रूप हैं। निरंतर श्रद्धा तथा निष्ठापूर्वक आराधना द्वारा व्यक्ति अंतत: परम सत्य को प्राप्त कर लेता है। आराधना के लिए चयनित वेदी और पूजा करने के ढंग के आधार पर श्रद्धा तीन प्रकार की मानी गई है। जो दूसरों को नष्ट करने के उद्देश्य से मृतकों और भूत-प्रेतों आदि की पूजा करता है, उसकी श्रद्धा तामसिक कही जाती है। जिसकी उपासना अधिक से अधिक धन, संपत्ति व सत्ता के संचय के लिए होती है, उसकी श्रद्धा राजसिक-श्रद्धा कहलाती है। परन्तु जो व्यक्ति अपने हृदय की शुद्धि और परमात्मा के प्रेम एवं विश्वास को प्राप्त करने के लिए पूजा करता है, उसकी श्रद्धा सात्विक होती है। इस प्रकार की श्रद्धा मनुष्य को ऊंचे आध्यात्मिक स्तरों पर पहुंचा देती है। श्रद्धा न केवल जीवन के उद्देश्य को परिभाषित करती है, बल्कि उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन भी प्रदान करती है। श्रद्धा लक्ष्य निर्धारित करती है, आध्यात्मिक पूर्णता का मार्ग बताती है; और उस पथ पर खुशी-खुशी चलने के लिए प्रेरित करती है।